सुदूर शाम
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सुदूर शाम रंगभरी, नए सपने सजाती
आँखों में समा अनोखी छटा है लुभाती
सूर्य की लालिमा सागर में उतरती हौले से
रूप की मादिरा जल में प्यार से है छलकाती ।
मंद हवा पर्वतों को छूकर उनसे कुछ कह जाती
पेड़ों की पत्तियाँ धीरे - धीरे अपने में सिमट जाती
निशा प्रकृति का निमंत्रण पाकर धरा में उतरती है
विश्राम की घड़ी का सबको है आभास करा जाती।
अद्भुत संगम होता है दिन - रात की घड़ी का यहाँ
बिखरा पड़ा है सौंदर्य समाया है उसमें सारा जहाँ
जीवन चक्र दिन - रात के इर्द-गिर्द घूमा करता है
इनमें ही खो जाता है इंसान न जाने कहाँ - कहाँ।
आभा दवे
मुंबई