ग़जल
हया का रंग फिज़ा की महक अभी सोई है
नई उमंग किसी ख्वाब में गुम अभी खोई है
यूं मोहब्बत की पनाहों में रात बीत रही है
दबी दबी सी कोई नब्ज अंग अभी सोई है
उनकी आंखों पर पर्दा किए हैं यूं दोनों पलकें
जैसे महफ़िल में रखी जाम सब डुबोई है
इस तरह शरारत किए हैं जुल्फों से हवाएं
ऐसा लगता है कि मस्ती में वो पिरोई है
किताबों को लगाया है सीने से इस तरह जैसे
पूरी कायनात,आरज़ू सिमट कर अभी सोई है
इबादत करूंगा मै की रब उसे सलामत रक्खे
तूफान वाली रात ज्योति हालात वो संजोई है।।