गीत
एक दिन खेत पर
उठा फावङ़ा, नाप धरा को
खुद को कर तैयार
एक दिन तूं खेत पर आ।
भूखा पेट लिए जाते हम
सोने जैसी फसल उगाते
मंडी मंडी भटक रहे पर
पूरे दाम नहीं ला पाते
कैसे खून पसीना बनकर
माटी में मिल जाता है
चमके तेरे हीरे तन से
इनको जरा उतार
एक दिन तूं खेत पर आ।
सरदी गरमी बारिश पाला
बरसों से झेला हमने
उम्मीदों का अन्न हमारा
झूठा छोङ़ दिया तुमने
गोदामों में पङ़ा सङ़े वो
करने को व्यापार
एक दिन तूं खेत पर आ।
देख हकीकत नमक मिला हम
सूखी रोटी खाते हैं
धरा बिछाते गगन ओढ़ते
फौलादी हो जाते हैं
यदि हम बीज नहीं बोएं तो
आंखें तेरी चार
एक दिन तूं खेत पर आ।
डॉ पूनम गुजरानी
सूरत