ये कविता भगवान श्रीकृष्ण के जीवन लीला पे आधारित शिक्षाओं को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से लिखी गई है ।
देखो सारे क्या कहते हैं किशन कन्हैया इस जग से,
रह सकते हो तुम सब सारे क्या जग में मैं को तज के?
कृष्ण पक्ष के कृष्ण रात्रि जब कृष्ण अति अँधियारा था,
जग घन तम के हारन हेतु , कान्हा तभी पधारा था ।
जग के तारणहार श्याम को , माता कैसे बचाती थी ,
आँखों में काजल का टीका , धर आशीष दिलाती थी।
और कान्हा भी लुक के छिपके , कैसे दही छुपाते थे ,
मिटटी को मुख में धारण कर पूर्ण ब्रह्मांड दिखाते थे ।
नग्न गोपी के वस्त्र चुराकर मर्यादा के पाठ बताए,
पांचाली के वस्त्र बढ़ाकर , मर्यादा भी खूब बचाए।
इस जग को रचने वाले भी कहलाये हैं माखन चोर,
कभी गोवर्धन पर्वतधारी कभी युद्ध को देते छोड़।
होठों पे कान्हा के जब मुरली गैया मुस्काती थीं,
गोपी तजकर लाज वाज सब पीछे दौड़ी आती थीं।
अति प्रेम राधा से करते कहलाये थे राधे श्याम,
पर जग के हित कान्हा राधा छोड़ चले थे राधेधाम।
पर द्वारकाधिश बने जब तनिक नहीं सकुचाये थे,
मित्र सुदामा साथ बैठकर दिल से गले लगाये थे।
देव व्रत जो अटल अचल थे भीष्म प्रतिज्ञा धारी ,
जाने कैसा भीष्म व्रत था वस्त्र हरण मौन धारी।
इसीलिए कान्हा ने रण में अपना प्रण झुठलाया था,
भीष्म पितामह को प्रण का हेतु क्या ये समझाया था।
जब भी कोई शिशुपाल हो तब वो चक्र चलाते थे,
अहम मान का राज्य फले तब दृष्टि वक्र उठाते थे।
इसीलिए तो द्रोण, कर्ण, दुर्योधन का संहार किया,
और पांडव सत्यनिष्ठ थे, कृष्ण प्रेम उपहार दिया।
विषधर जिनसे थर्र थर्र काँपे,पर्वत जिनके हाथों नाचे,
इन्द्रदेव का मैं भी कंपित, नतमस्तक हैं जिनके आगे।
पूतना , शकटासुर ,तृणावर्त असुर अति अभिचारी ,
कंस आदि के मर्दन कर्ता कृष्ण अति बलशाली।
वो कान्हा है योगिराज पर भोगी बनकर नृत्य करें,
जरासंध जब रण को तत्पर भागे रण से कृत्य रचे।
एक हाथ में चक्र हैं जिसके , मुरली मधुर बजाता है ,
गोवर्धन धारी डर कर भगने का खेल दिखता है।
जैसे हाथी शिशु से भी, डर का कोई खेल रचाता है,
कारक बनकर कर्ता का ,कारण से मेल कराता है।
कभी काल के मर्यादा में, अभिमन्यु का प्राण दिया,
जब जरूरी परीक्षित को, जीवन का वरदान दिया।
सब कुछ रचते हैं कृष्णा पर रचकर ना संलिप्त रहे,
जीत हार के खेल दिखाते , कान्हा हर दम तृप्त रहे।
वो व्याप्त है नभ में जल में ,चल में थल में भूतल में,
बीत गया पल भूत आज भी ,आने वाले उस कल में।
उनसे हीं बनता है जग ये, उनमें हीं बसता है जग ये,
जग के डग डग में शामिल हैं, शामिल जग के रग रग में।
मन में कर्ता भाव जगे ना , तुम से वांछित धर्म रचो,
कारक सा स्वभाव जगाकर जग में जगकर कर्म करो।
जग में बसकर भी सारे क्या रह सकते जग से बच के,
कहते कान्हा तुम सारे क्या रह सकते निज को तज के?