बादलों के रूई जैसे सफेद फाहे,
अठखेलियां करते नीले आकाश में,
आलिंगनबद्ध होते हीं झरती हैं,
प्रेम की बूँदें-
छोटी छोटी मनोहारी बूँदें,
धरती पर अंकुरित होते हैं बीज,
सिंचित होते हैं पेड़-पौधे,बाग,
आती हैं हरियाली,
फसलों के दाने भरे पुष्ट बाली,
चहुँ ओर खुशियां
किलकारी मारती हैं,
त्योहार और पर्व मनाती हैं,
तैरते हैं ओठों पर मुस्कान।
हमारे गांव में पहले-
जब बादलों की रूई नहीं दिखती,
इन्द्रदेव की होती पूजा,
महिलाएं गाती समूहगीत
मेंढ़की को उखल में डाल
मूसल से चोट दे
निकलवाती आवाज़-टर्र टर्र।
महिलाएं खिल खिला उठती,
इन्द्रदेव होते प्रसन्न,
बरसने लगती बूँदें,
भागती सूखा,
फटती परती जमीन के सीने,
हो जाते उर्वर,
भर जाते खलिहान।
*
पर काले बादलों के दानव
जब टकराते हैं आकाश में,
अट्टहास करते लड़ते हैं ,
गड़गराहट के साथ आपस में,
चमकती हैं बिजलियां,
गिरती हैं भारी-भारी बूँदें,
हाहाकार मचाती डूबाती हैं,
लहलहाती फसलें,
धंस बह जाते हैं,
माटी के मकान,
नदियों में आता है उफान।
फुफकारती पानी की लहरें,
चलती है वलखाती नदियों से,
तोड़ती हैं सड़कें व बांध,
डुबाती हैं गांव और मैदान।
गांव छोड़ टीले पर आश्रय लेने,
दौड़ते भागते चल पड़ते हैं,
वेवश उजड़े इंसान।
नदियों के तांडव,
बादलों के गर्जन
के बीच गाती हैं महिलाएं-
कहीं गंगा कहीं कोसी गीत,
फिर करती हैं दीपदान।
"आब बकैस दियो गंगा मैया,
आब बकैस दियो कोसी मैया,
चढैबो तोरा जोड़ा पाठा मैया,
डाली चढैबो तोहर थान ।"
धीरे धीरे पानी वापस जाता है
गंगा और कोसी की कोख में,
तब शुरु होता है,
झिलोर का मधुर गान।
अगले वर्ष तक खिले रहते हैं मुस्कान।
*मुक्तेश्वर सिंह मुकेश
17/07/2020