धरा भी सोचे शान से
ये कौन चल रही,
सफर में एक अनबुझी सी मोम चल रही।
हवाएं उनके पैरों के
निशान पे रुके,
डालियां भी उस काली के
मान में झुके।
ना जलाए धूप उन के
मखमली से पांव,
केश काले डाले उन पे
सरदारी सी छांव।
मचलते आसमान की
क्षितिज पे ढल रही,
सफर में एक अनबुझी सी मोम चल रही।
उनके ताल से मिलाएं
पत्ते अपना ताल,
पास से गुज़रता झरना
पूछे उनका हाल।
सुराही सा बदन न जाने
लिखता क्या है गीत,
दीदार उनका हो गया
तो ज़िन्दगी ली जीत।
सूरजकी किरने उनपे आ के कैसे जल रही,
सफर पे एक अनबुझी सी
मोम चल रही।