(63)*जहाँ से चले वही ठहर जाना है अब*
जब मैं दूर देश
गली खेत खलिहानों की मिट्टी के साथ
अपनी यादों की पंखुड़ियों को लेकर
एक अंजान शहर के एक कोने में आकर
बनाया था सुंदर एक रैन बसेरा
शहर की चरण की धूल को
अपने मस्तक में पोत कर
दिन रात तोड़ने लगा था पत्थर
जिंदगी की बैलगाड़ी को
खींच रहे हैं शहरी अंधेरे में
कभी हाँकना तो कभी हाँफना
सरारती गलियों के घुप्प अंधेरे में
उदास बैठा है जीवन का उजाला
उर का भार उलझे ख़यालों में
दर्द की एक अनकही अंतहीन यात्रा
शंकाग्रस्त सपनों के थरथराते पैर
पहाड़ सी चढ़ान पर पीछे सरकती
जिंदगी की यह बैलगाड़ी जहां से चली थी
वही पर आकर ठहर गई सी गई है,
सड़क की तमभरी चढ़ान
बलखाते खतरनाक मोड़ पर
अनंत गहराई के संस्पर्श के साथ
बिपरीत हवाओं से आलिंगन कर
एक ओर भयानक खड्ड तो दूसरी ओर
बरसों का गहराया अंधेरा चढ़े थे
मजबूरी के खयाली शिखरों पर
उतर कर जा रहे जन्मभूमि की ओर
जो सोने की लंका से भी महंगी है
जहां से चले थे पैर वही पर
पुनः ठहर जाना है अब।
रचनाकार-शिव भरोस तिवारी "हमदर्द"
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