(covid diaries )
आत्मचिंतन
आइना बनीं ये खिड़की है सच कि ,झांकू मैं जहाँ से दिखे है सब सही , तो क्यूँ हूँ दुखी।
घमंड की चड़ी है नरबलि , ना हूँ अब महान , झूठा निकाला स्वाभिमान ।
इच्छाओं के सागर मे गोते लगाऐ मेने भी, थम गया है सब अभी,
अब हूँ सिर्फ खुद मे ही।
प्रकृती कि कोक को खंरोचा है मैने भी , खूनीं इन हाथों को अब धोऊँ मैं हर कभी।