"चाइना की छोरी"
चाहे दिन की धूप हो
या फिर रात की चांदनी
पसर कर लेट जाती है वो
बहुत तगड़ी और मोटी है,
ये तो चाइना की कोख़ से निकली
छोरी है जो बहुत चतुर चालाक है
जो घूम घूम कर दुनिया में फैले
अपने छौनों को दूध पिला रही है,
न जाने किधर से घुस कर आती है
कुतर जाती है ख़ुशी की टहनियां
आहट पाकर भी नही हटती है
ढीठ है जिसको पाती कुतर रही है,
छोटे बड़े पेड़ों की जड़े हिलने लगी हैं
भरभराने लगी हैं महलों की बुनियादें
डोंग़ा की तरह गिर रहीं टूट कर सांसे
बिरान हो रही मानव की सभ्यताएं!
रचनाकार-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'