"कोरोना"
क्या नही इसकी अदृश्य आंखों में
बिचलित करती शातिर निगाहों में
नफ़रत सी धधकती इसकी चालों में
इसमे नही है कोई प्यार का रसायन
ठगे जाने की इसकी प्रयोगशाला में
दमन कर रहा मानव की सिधाई को
दुर्दम,अमानवीय,क्रांतिदर्शी कृत्यों से
छद्म युद्ध करता प्राण घातक वाणों से
कोरोना की अदृश्य शक्ति ने हरी भरी
समूची दुनिया को वीरान कर रहा है
मुझे कहीं एकांत नही दिख रहा है
खुद को बादलों में छिपाना चाहता हूं
आकाश छाती से आकर टकराता है
ऐसा लगे जैसे मन का महल चरमराता है
नीचे बहुत गहरी अतल खाई सी है
चीख कर पीछे कहीं भय सताता है
दर्द इस तरह हो रहा जैसे अजगर
निगल कर फिर धरती पर उगला है
सांस की कड़ी टूट कर जैसे गिरती है
हिल रही है डाल मानव बटबृक्ष की
असभ्यता,असत्य,दम्भ की तूणीर लिए
मानव निश्चिंत होकर चला जा रहा था
धरती के बिराट सीना को चीरते हुए
अपने ज्ञान की लालटेन जला कर
मानव खड़ा है पर्यावरण की देह पर
अंधेरे का वर्णन करूं या फिर उस
उजाले की जो कोरोना के पीछे खड़ा है
धरिणी, आकाश, दिशाएं, ऋचाएं
ईश्वरीय अभाएँ खुलकर खड़े हुए हैं
मानव के खिलाफ हाँथ दो हाँथ कर
अपने संतुलन को बनाने के लिए।
किताब-"लॉक डाउन के वो चालीस दिन" से
लेखक-शिव भरोस तिवारी "हमदर्द"