वक़्त बेआवाज़ बीत रहा है, पर दिमाग़ में कभी कभी शोर कितना कर रहा है... इस वीराने से पहले जो जिंदगी जीने का सलीका था, आधा अधूरा सा सच्चाई से दूर मनमानी पे आमादा जिद का नतीजा था... उन दिनों शायद हर एक को लगता था कि वो भी खुदा है.... आज अपनी ही कब्र के ऊपर बैठे लगता होगा कि वो इस कायनात का धीरे धीरे खत्म हो रहा बस एक जर्रा है..... परिन्दे हैरान परेशान है इस सूनी दुनिया को लेकर वजह क्या है, काश वो जान पाते इनसान ने ख़ुद ही अपने वजूद को लगा डाला कितना जख्म गहरा है.... करे कोई भरे कोई ये एहसास गरीब के दिल में अब ठहरा है, उनको तो बस इतना ही समझ आता है कि भूख पर नहीं लगता कोई पहरा है.... तो जाना होगा उसके दरवाजे पे इसके पहले कि भूख बाहर निकले, यकीन मानो मिट जाएगें इंसानियत के दामन पे लगे आज तक के सारे शिकवे और गिले.... जय हिंद