इक दफ़ा उसकी नोटबुक के आख़िरी पन्ने पर लिखी हुई पायीं मैंने अपनी कविता । कविता के नीचे भी कुछ लिखा था । ध्यान से देखा तो ये किसी ख़त का शुरुआती हिस्सा था ।
'प्रिय लड़की,
वैसे तो यह कविता मेरी क्लास की इक लड़की ने लिखी है पर मुझे लगा मानों तुमने ही लिखी हैं मुझ पर यह कविता । उस लड़की की फेसबूक वॉल से उठा लाया और बड़े नाज़ों से यहाँ बिठा रहा हूँ ये सोचकर कि मानों तुमने ही लिखी हैं मुझ पर यह कविता । वैसे...'
'वैसे...' के बाद उसने क्या लिखना चाहा होगा और लिखा क्यों नहीं !! क्या टीचर आ गई होगी क्लास में... या फिर बिन मौसम बरसात... और वो प्रिय लड़की कौन है ? यही सब सोचते हुए सुबह हो गई । फिर मैंने कोई शाम, कोई सुबह वो ख़याल मन में नही लाया जिसमें उसका ज़िक्र हो पर फिर भी सोचती हूँ 'वैसे...' के बाद उसने क्या लिखना चाहा होगा..!!
ख़ैर मुझे क्या ? मैंने तो फिर कविताएँ लिखना ही छोड़ दिया ।
- Anami D