गीत
मैं तो अंगार का एक कलमकार हूं, मुझको श्रृंगार भाता रहा रातभर।
उसकी नज़रों में थी जाने कैसी कशिश, धीरे धीरे समाता रहा रातभर।
मैं अकेला पथिक जा रहा था कहीं, राह में मिल गई मुझको वो हमसफ़र।
धीरे धीरे अंधेरा भी घिरने लगा, और सताने लगा था जमाने का डर।।
मेरी हस्ती ने थी कि मैं सूरज बनूं, जुगनू बन टिमटिमाता रहा रातभर।
उसकी नज़रों में थी जाने कैसी कशिश, धीरे धीरे समाता रहा रातभर।।
दूरियां धीरे धीरे निलंबित हुई, उस नदी में उमंगे सी भरने लगीं।
कितनी खुश हो गई जब समंदर मिला, अश्क भर वो नज़र में विचरने लगी।।
देख कर उसकी खुद्दारियां जाने क्यों, मैं ग़ज़ल गुनगुनाता रहा रातभर।
उसकी नज़रों में थी जाने कैसी कशिश, धीरे धीरे समाता रहा रातभर।।
रात ढलती रही साथ चलता रहा,वो बदलती रही मैं बदलता रहा।
तम भरी रात का हो गया यूं असर,वो मचलती रही मैं मचलता रहा।
उसने अधरो से मुझको छुआ इस तरहां, मैं अधर थरथराता यह रातभर।।
उसकी नज़रों में थी जाने कैसी कशिश, धीरे धीरे समाता रहा रातभर।।
देखती वो रही, देखता मैं रहा, उसने कुछ ना कहा मैं भी खामोश था।
रात भर बात नज़रों से होती रही, वो भी मदहोश थी मैं भी मदहोश था।।
मन प्रफुल्लित हुआ ज्यों बगीचा कोई, गंध अपनी लुटाता रहा रातभर।
उसकी नज़रों में थी जाने कैसी कशिश, धीरे धीरे समाता रहा रातभर।।
वीरगाथाएं मुझसे विलग हो गईं, और सुमन प्रेम का मन में खिलने लगा।
शब्द ढलने लगे सब मिरे प्रेम में, नेह सागर सा मुझको भी मिलने लगा।।
वो भी रावत को हर पल सताती रही, मैं भी उसको सताता रहा रात भर।
उसकी नज़रों में थी जाने कैसी कशिश, धीरे धीरे समाता रहा रातभर।।
रचनाकार
भरत सिंह रावत भोपाल
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