सुनहरी शीतल शाम मे मैंने खुद को जलते देखा है,
कोई नहीं मैंने अपने आप खुद को सुलजते देखा है,
इस भिड भाड में अपने पन वाला कंघा ढुंढते खुदको देखा है,
तनहाई की चद्दर ओढें निंद को तलाशते मैंने खुद को देखा है,
अपने ही घर में खुद को अपनी खयाल रखते हुए देखा है,
अरसे बाद अपने घर में खुद को पा के , अपनो को घर से जाते देखा है,
मंदिर के झालो को साफ करते हुए खुद को देखा है,
शहर मे अंजानो को मेरी परवाह करते हुए देखा है,
खुदगर्ज जहाँ में इंसानियत पालते अवाम को देखा है,
इस नासमझ ज़वानी मे मैंने बच्चे को समजदारी निभाते हुए देखा है,
बेपरवाह बरस रही उलझनो को सुलजने के लिए मौसम से रझ़ामंदी लेते हुए देखा है,
तुफानी समंदर मे मैंने लहरों को अंत में हारते हुए देखा है,
सुनहरी शीतल शाम मे मैंने खुद को जलते देखा है,
कोई नहीं मैंने अपने आप खुद को सुलजते देखा है,
-कैरव