किस किस से लडूं मैं
खुद के लिए इस दुनिया से
अपनों से या परायों से।
घुट घुट के जिऊँ मैं
साँस भी है चाहत भी है
पर लड़ ना सकूँ इस दकियानूसी विचारों से।।
मजबूर तो हूँ जो इस भँवर फँसी
इस पार भई न उस पार भई।
सोचा था सबसे खास हूँ मैं
औ खासमखास ही में बेकार हुई।।
ठोकर जो लगे राहे पाथर से
तो आगे कैसे बढ़ पाऊँ।
जो सर फोड़े घरपाथर तो
दर्द भला कैसे सह पाऊँ।।
खंजर सी चुभती हैं बातें
कुछ बातें भी बिस्फोटक हैं
कुछ बातें चुभती हैं रह रह
कुछ बातें पंथ निरोधक हैं।।
इस पार कंटीले हैं जंगल
उस पार भी जलती खाईं है।
प्रियवर मेरे किस छोर छुपा
बस याद तेरी अब आई है।।