मन का पंछी उड़े गगन है.......
मन का पंछी उड़े गगन है,
खुद में ही वह खूब मगन है।
जितना चाहे उड़े भुवन में,
उड़ने का बस उसे लगन है।
चंचल मन का क्या कहना है,
बंधन में वह कहां बंधा है।
घूरे वह सूरज के तप को,
कहता उसका व्यर्थ तपन है।
मन तो बस सपना जैसा है,
सपना भी कब सच होता है।
नींद खुली तो टूट गया वह,
कर्मठता को सही नमन है।
तन तो आज साथ बैठा है,
मन की भटकन और कहीं है।
कभी यहां पर कभी वहां पर,
मन को आती नहीं थकन है।
मन की चाह बड़ी होती है,
शायद उसकी मजबूरी है।
मन का पूरा करते करते,
होता जीवन पूर्ण हवन है।
मन तो एक खयाली घोड़ा,
भागा जो सरपट है दौड़ा।
क्षितिज उसे लगता है थोड़ा,
उसे रोकना बड़ा कठिन है।
भटकन मन की बहुत बुरी है,
जिसने वश में उसे किया है।
इंद्रजीत बनकर है जीता ,
जग करता तब उसे नमन है।
मनोज कुमार शुक्ल "मनोज "