यह रचना मेरे एक अजिज दोस्त ने लिख के मुझे भेजी थी।
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ज़िस्म का भूखा मोहब्बत के लिबास में मिला था ,
पहचानती कैसे उसे चेहरे पर चेहरा लगा कर मिला था,
क्या पता था दर्द उम्र भर का देगा,
वो दरिंदा बड़ा मासूम बन कर मिला था,
पहली मुलाकत में ही दिल में उतर गया था,
कि वो मुझे पूरी तैयारी के साथ मिला था,
देखते ही देखते वो मेरा हमराज बन गया,
हर दफा वो मुझे मेरा यकीन बन कर मिला था,
माँ बाप से छुप कर उसको मिलने लगी थी,
वो मुझे मेरा इश्क बनकर जो मिला था,
हल्की सी मुस्कान लेकर वो मुझे छूता रहता था,
वो हवसी मेरी हवस को जगाने की कोशिश करता था,
वक़्त के साथ उसके इश्क का नशा मेरे सिर चढ़ने लगा था,
मेरा भी ज़िस्म उसके ज़िस्म से मिलने को तरसने लगा था,
इश्क के नशे में देख वो मुझे बेआबरू करने लगा था,
वो जिस काम की तलाश में था,उसे वो करने लगा था
टूट पडा था वो मुझ पर, हवस में दर्द की सारी हद पार कर गया था,
उस रात वो पहली बार मुझे मुखौटा उतारकर मिला था,
हवस मिटा कर अपनी, उसने मुझे जमीन पर गिराया था
दिल की रानी कहता था जो मुझे, उसने तवायफ कहकर बुलाया था
मोहब्बत थी ही नहीं उसे ,ज़िस्म को पाने का प्रपंच रचा था,
मेरे प्यार ,मेरी मासूमियत, के साथ उसने खेल खेला था
मुझे छोड फिर पता नहीं कहा चला गया था
मोहब्बत की आड़ में शायद किसी ओर को तवायफ बनाने गया था
कितना वक़्त गुजर गया,ज़ख्म रूह के अब भी हरे है
सोचती हूं मोहब्बत के राह में क्यों इतने धोखे हैं,
हर मोड़ पर क्यों खडे जिस्मों के आशिक है,
खुद को,किसी को सोपने से पहले
ज़रा सोच लेना...
कही वो शिकारी जिस्मों का तो नहीं
तुम थोड़ी जांच कर लेना
अब कभी खुद को, कभी मोहब्बत को,तो कभी उसको कोसती हूं
ऐ किस्मत मेरे साथ, तेरा क्या गिला था
वो आखरी बार मुझे बिस्तर पर मिला था।।