दिन का तो पता चलता नहीं,
रात अकेली काँटने को दौड़ती है।
यहाँ हाथों की हेराफेरी, लफ्जों की अय्यारी,
झुठन से रिश्तेंदारी, आदतन मज़बुरी,
दिन का तो इसमें पताही नहीं चलता।
रात को बस यादों का सहारा है।
करवटें ना बदलो तो प्यार को किनारा है।
पर कहाँ ये सब नसीब में है मेरे।
शब शक़ल नाराज़ रहेती है आज़कल।