क़समों के खुले मैदानों पर,
इक़रार के पौधे बोए थे
बारिश न दिखी जब दूर तलक,
अश्कों में पत्ते डुबोए थे|
सजदेमें झुके थे हम जिनके,
कभी बन ना सका वो अपना ख़ुदा
काँटों से लदी दरख्तों पे
मैंने आमके ख़्वाब संजोए थे |
तुझको पाना है ग़र नामुमकिन,
ख़ुदसे मिलने का भी दम रखते है
सेहरा की सुलगती रेतों में
कभी हमनें भी पाँव भिगोए थे !
- Swati.
Originally published at https://swatisjournal.com/ghazal/