प्रधान संपादक
(काव्य गंगा मोबाइल एप्स)
* विजय कुमार मिश्र- *
मो. 6260201191
---------एक---
नहीं समझते आत्मज,
आत्म जा का कष्ट ।
बेटी एक विवाह कर
जीवन भर को नष्ट ।
शायद मिलता चैन इन्हें,
वातावरण प्रदूषित कर के ।
रख दूंगा परिभाषित कर के ।।
वैसे मेरी बात पर,
आता होगा क्रोध ।
समझ सकें तो समझ लें
गलत नहीं है शोध ।
जिसके अंदर शर्म नहीं,
मिलना क्या है लज्जित ।
रख दूंगा परिभाषित करके।।
करके पीले अगर कभी,
तुम बेटी के हाथ ।
टीवी कूलर सोफा भि
आठ लाख के साथ ।
मरवा डाला नई बहु,
बार-बार अपमानित कर के ।
रख दूंगा परिभाषित करके ।।
लड़का बना है लाटरी,
जब भी नंबर खोल ।
उनका क्या जाए यहां,
मिल ही जाए मोल।
कहने को अब कौन कहे,
यह चलचित्र प्रदर्शित कर के।
रख दूंगा परिभाषित कर के।।
देखो मंडप उखड़ गया,
बेटी हुई तवाह।
रहे कुमारी उम्र भर
करे कौन परवाह।
कईयों बार दिखाया है,
इनके कर्म प्रमाणित करके।
रख दूंगा परिभाषित करके।।
जल जाती है अगर बहू,
है खतावार स्टोव।
और मायके पहुंचकर,
दिखलाते हैं रोब।
आदर्शों की बैसाखी से,
सारा तंत्र प्रभावित कर के।
रख दूंगा परिभाषित कर के।।
लड़की देवी की तरह,
सज्जन और सुशील।
मौका मिलते ही यही,
ठुकवा देते कील।
उन्मुक्त गगन में विचर रहे,
नियमों को स्थापित कर के।
रख दूंगा परिभाषित कर के।।
ये आत्मजा की धज्जियां.
टोपी रहे उछाल।
बद से बदतर हो रहा
उस बूढ़े का हाल।
आपमानो का बोझ ना डालो
हमको यूं आमंत्रित कर के।
रख दूंगा परिभाषित कर के।।
अपनेपन की भावना
विजय" हो गई गोल।
आज आदमी ले रहा,
आदमियों का मोल।
तीक्ष्ण वेदना ही होगी,
रामराज संभावित कर के।
रख दूंगा परिभाषित कर के।।
------दो------
जितनी ही ऊंची खोली है।
उतनी ही नीची बोली है।।
जितनी नियति पुलिस की डोली।
हां नहीं किसी की डोली है।।
थाने के आगे ही लुटती।
क्योंकर दुल्हन की डोली है।
छिपा छिपा केअपनी अपनी।
सबने ही नब्ज टटोली है।
कर्जा माफी लोन में बिकती।
ये जनता कितनी भोली है।
संसद से चलता है गोला
पर मिलती हमको गोली है।
वादा तो हमसे था लेकिन।
रब जाने किसकी होली है।
इस कुर्सी का ईमान ही क्या
वो कब किसकी से होली है।
हिन्दू मुस्लिम वो की बातें।
इक नाहक और टिठोली है ।
राम और बाबर को मापें।
ये कैसा दामन चोली है।
राजनीति में राज कहां अब।
सब बडे बडों की पोली है।
पथ का कांटा लगे सभी को
क्यों टीका चन्दन रोली है।
तम्बाखू थूका था उसने।
वो किस साबुन ही धो ली है।
काटे से ना कटती आका
क्यों फस्ल ही ऐसी वो ली है।
"विजय"जगाये जब ना जागे।
तब मानो किसमत सो ली है।
------तीन----
प्रधान संपादक
काव्य गंगा मोबाइल एप्स
* पं. विजय कुमार मिश्र *
पोंड़ी कला गोसलपुर सिहोरा जबलपुर 483222(मप्र)
मोबा. 6260201191