अंतर (लघुकथा)
उनकी उम्र अब नब्बे को छू रही थी। पर वे स्वस्थ थे और अपने सभी काम अपने ही हाथों से करना पसंद करते थे।
कुछ दिन पहले वे आधी रात में बिस्तर से उठ कर शौचालय जा रहे थे,जो कुछ ही दूरी पर था।
अचानक उन्हें लगा जैसे भगवान शिव स्वयं उनके सामने आकर खड़े हो गए हों। बिल्कुल वही आकार प्रकार था,जो वे रोज़ पूजा में देखते अा रहे थे।
वे हतप्रभ रह गए,और दोनों हाथ जोड़ दिए। संयोग से इस समय वह छड़ी भी उनके हाथ में नहीं थी जो वे अक्सर रखा करते थे। इतना ही नहीं, लौटते समय वही मूरत फ़िर उनके सामने आई।
अबकी बार वे बुदबुदा कर बोल भी पड़े - महाराज, क्यों बार बार मेरे सामने आ रहे हो,क्या मुझसे कोई भूल हो गई?
मूर्ति अन्तर्ध्यान हो गई।
जब वे बिस्तर पर आकर लेटे तो उन्हें ऐसा लगने लगा मानो वे समुद्र की लहरों में डूबते जा रहे हों।बार बार लहरें उन्हें गहराई की ओर ले जा रही थीं।
अगली सुबह वे बहुत प्रफुल्लित थे। हर आने जाने वाले को रात की अपनी आपबीती सुना रहे थे।
वे ये देख कर प्रमुदित थे कि रोजाना में उनकी बात अनसुनी करके चले जाने वाले लोग भी आज उन्हें ध्यान से सुन रहे थे। मानो दिन ही बदल गए उनके।
उनके छोटे बेटे का लड़का डॉक्टर था। उम्र कुल इकतीस साल पर बेहद प्रखर बुद्धि वाला। वह भीतर दूसरे कमरे में बैठा अपनी दादी को प्यार से समझा रहा था कि दादा जी की आंख का मोतिया बिंद ऑपरेशन न होने से इतना पक गया है कि उन्हें कभी कभी अपनी खुद की परछाई भी काली, आकार लेकर चलते किसी दूसरे आदमी की तरह दिखाई देने लग जाती है। रात को उनका ब्लड प्रेशर भी बहुत कम हो जाता है,खासकर पेशाब कर के आने के बाद।
दादी हैरानी से देख रही थीं कि ये वही छुटका है जो पैदा होने के बाद उनके हाथों से किसी खरगोश की तरह फिसला करता था।