वंश सुख (लघुकथा)
एक रास्ते के किनारे एक पेड़ खड़ा था। उसे यूंही खड़े खड़े बरसों बीत गए थे। बूढ़ा भी हो चला था। अब तने और शाखों में झुर्रियां पड़ गई थीं। जड़ों में ऐंठन और खोखलापन आ गया था। पत्ते या तो आते ही नहीं, या फ़िर पीले मुरझाए हुए रहते।
खाद और पानी की कौन कहे, अपने फल फूल तक का पता न रहता।
आसपास के लोग भी सोचते,अब गिरे तब गिरे।
एक दिन कोई लकड़हारा कुल्हाड़ी लेकर आ ही पहुंचा।
पेड़ को जैसे सांप सूंघ गया। जीने की इच्छा बलवती हो उठी।
लकड़हारे से बोला - बेटा,मैंने तुझे अपना हाथ काट कर लकड़ी दी, तू उसी लकड़ी में लोहा फंसा कर मेरी ही जान लेने आ गया?
लकड़हारा बोला - न तुझमें फल,न फूल,न पत्ते और न छाया ! अगर अब भी तुझे न काटा तो कल तेरे हाथ पैर खोखले होकर लकड़ी देने के काबिल भी न रहेंगे। बेहतर यही होगा कि तू अब अपनी बलि देकर कुछ पुण्य का काम कर। लकड़ी दे,और रास्ते से हमेशा के लिए हट जा !
पेड़ बोला - ज़रा तो सोच, मेरे कोटरों में अब भी दर्जनों पखेरु बसते हैं, क्यों उन्हें बेघर करता है?
लकड़हारा न पसीजा। बोला - गए बीते बूढ़े को इतनी जगह घेर कर पड़े रहने का कोई हक़ नहीं है। तू रास्ते से हटेगा तो तेरी जगह नया बिरवा आयेगा। वो फल फूल भी देगा और छाया भी।
पेड़ मायूस होकर बोला - पर तू नया बिरवा लाएगा कहां से?
लकड़हारा बोला - तेरे बीज से !
पेड़ ये सुनते ही ख़ुशी से झूम उठा। इससे पहले कि लकड़हारे की कुल्हाड़ी चले, पेड़ खुद ही भरभरा कर गिर पड़ा !