देवआनंद अपने दौर में महिलाओं में बेहद लोकप्रिय थे, और उनका दौर कोई छोटा- मोटा नहीं, बल्कि लगभग आधी सदी तक फ़ैला था।
एक बार एक पहाड़ी गांव में मुझे एक ऐसी महिला मिली, जिसके शिक्षित परिवार ने पंद्रह साल की उम्र में उसकी पढ़ाई छुड़ा कर उसे घर बैठा दिया। विवाह के बाद दुर्भाग्य से जब उसके पति का देहांत हो गया तो विवश होकर उस अच्छे घर की महिला को जीविका के लिए गांव में एक छोटी सी दुकान चलानी पड़ी। पढ़ाई छुड़ाने का कारण पूछने पर मुझे उससे जो जवाब मिला, मैं हैरान रह गया। उसकी पढ़ाई छुड़ाने का कारण ये था कि संस्कृत शिक्षक की वह बेटी एक दिन बिना बताए अपनी सहेलियों के साथ गांव से कुछ दूरी पर हो रही एक फ़िल्म की शूटिंग देखने चली गई थी। इतना ही नहीं, उसने तो हीरो के ऑटोग्राफ भी अपनी कॉपी में ले डाले थे।
लेकिन इस बात की उसे ये सजा मिली कि वह जीवन में पढ़ाई से वंचित तो रह ही गई, उसे अपने बुरे दिनों में सड़क किनारे दुकान चलाने की कठिन चुनौती मिल गई।
लेकिन आश्चर्य की बात ये कि उस महिला को इस बात का ज़रा भी पश्चाताप नहीं था कि देवआनंद की एक झलक देखने की एक ललक ने उसकी दुनिया ही बदल छोड़ी थी।
उससे मिलने के बाद उसके जीवन पर लिखी मेरी ये कहानी आप भी पढ़िए। इसे जून 2018 में रूस के मॉस्को शहर में भी पढ़ा गया जहां मुझे "दोस्तोयोवस्की" सम्मान भी दिया गया। ये सम्मान और ये कहानी उसी महिला को समर्पित... और समर्पित देवानंद की स्मृतियों को भी। देवानंद ने साधना के साथ दो फिल्में कीं- हम दोनों और असली नक़ली।