जवां दिल होना केवल एक मुहावरा नहीं है। किसी किसी के व्यक्तित्व में सचमुच ये अहसास अस्थि मज्जा की तरह घुला मिला होता है।
फ़िल्म स्टार देवानंद में ये अनुभूति कूट कूट कर भरी हुई थी। वे अपने स्वभाव को लेकर इतने ज़िंदादिल थे कि एक पल के लिए भी इस अहसास-आभास से अलग नहीं रह पाते थे कि उनकी उम्र चाहे जो हो, उनके सीने में जो दिल है वो सदाबहार है।
मज़े की बात ये कि उनकी इस भावना का ख़ामियाजा उनके सुपुत्र सुनील आनंद को भी उठाना पड़ा।
सुनील फ़िल्मों में लॉन्च हो रहे थे और चाहते थे कि उनके स्टार पिता उनका साथ सार्वजनिक समारोहों में उसी तरह दें, जैसे कई सितारों ने अपनी संतान को लॉन्च करते समय दिया है। कई स्टार्स तो अपने बच्चों को प्रमोशन के लिए अपने साथ लिए घूमे हैं, ताकि पुत्र या पुत्री को उनके संपर्क और प्रभाव का लाभ मिले।
किन्तु देव साहब को ये गवारा न था। वो हीरो, तो मैं भी तो हीरो... ये बात दिल से कभी नहीं निकली। नतीजा ये हुआ कि सुनील असफल होकर बैठ गए और देव आनंद बदस्तूर 21,22 साल की लड़कियों को अपनी हीरोइन बना कर लाते रहे।
"हम दोनों" और "असली नक़ली" में उन्होंने साधना के साथ काम ज़रूर किया पर उन्हें लगता था कि सेट पर साधना किसी गार्जियन की तरह उनका ध्यान रखें। क्योंकि वे उनका आदर इसी तरह करते थे जैसे वे उनसे बड़ी हों।