कुछ उलझी सी लगती है ये जिंदगी जब बार बार अपने सपनों को टूटते हुए देखती हु मै। जिंदगी में क्या करना चाहा था क्या हो गई हूं। उदास हो जाती हूं।गमोंको महसूस करती हूं। पर किसी से कुछ कह नहीं पाती।
कुछ उलझी सी लगती है ये जिंदगी जब अपने बच्चों को यूं आपस में लड़ते हुए देखती हूं। जब वे नादान गैर जिम्मेदार से लगते है।जानती हु उनके जवां उम्र का तकाजा है,वे ऐसाही बर्ताव करेंगे,उनकी फिक्र करती हु क्या करूं एक मा के मन को समझा नहीं पाती।
कुछ उलझी सी लगती है जिंदगी जब चुपचाप रिश्तोंमे पड़ी दरारों सह जाती हूं। हां कभी इस मनमुटाव से सहम जाती हु। पर किसी से कुछ पूछती नहीं।किसी से कोई शिकायत करती नहीं।जानती हु धीरे धीरे अकेली हो रही हु मैं, पर अब रिश्तों में समझौता नहीं कर पाती।
कुछ उलझी सी लगती है ये जिंदगी जब घर में बिखरी किताबें , फैले कपड़े, जमी हुई धूल और मेरी ढेर सारी दवाईयां देखती हु। क्षमता से अधिक काम करने लगती हु और थक हार कर बैठ जाती हु। पता है मुझे मेरा हालचाल तो कोई पूछेगा नहीं। फिरभी सबका ख़्याल रखती हु पर खुदको सम्भाल नहीं पाती।
कुछ उलझी सी लगती है ये जिंदगी जब मुसीबतें पीछा नहीं छोड़ती। खुशी के चंद पल चंद ही होते है, और ग़म की पूरी रात होती है । सब कुछ जानते हुए भी नासमझ बन जाती हु। सब ऊपरवाले पे छोड़ रखा है मैने। सोचती हूं चाहे जैसी भी है, उलझी ही सही आखिर अपनी ही तो है , इसीलिए इसी जिंदगी को हंसते हुए जीए जाती हु, मै लड़वैया हूं। मैदान छोड़कर भाग नहीं सकती।
चाहे फिर कुछ उलझी सी लगे यह जिंदगी।
@sanganiwrites