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Vijayanand Singh

Vijayanand Singh

@vijayanandsingh4432
(19)

#kavyotsav
विषय - प्रेम

गीत लिखूँ (कविता )
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पुलकित रोम-रोम में
कोमल हृदस्पंदन में
उदृदाम भावावेग में
जब याद तुम्हारी आये
तो मैं गीत लिखूँ।

मन फागुन-फागुन हो जाये
मदमस्त पवन दुलराये
आम्र मंजरों में छिपकर
जब कोयल कूक सुनाये
तो मैं गीत लिखूँ

डोले गेहूं की बालियाँ
अंकुराए मन की क्यारियाँ
रससिक्त-नवकुसुमित कलियाँ
जब भ्रमरों को ललचाएँ
तो मैं गीत लिखूँ।

उन्मीलित नयनों में गोरी
मनमोहक स्वपन सजाए
मीठी यादों में खो कर
जब मंद-मंद मुस्काए
तो मैं गीत लिखूँ।

कुम्हलाए शरद-से मन में
छिटकीं सूरज की रश्मियाँ
पा अहसासों की ऊष्णता
जब मन-सरोज खिल जाये
तो मैं गीत लिखूँ।

- विजयानंद विजय

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ख्वाब तुम्हारी आंखों में
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गीत लिखूँ
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पुलकित रोम-रोम में
कोमल हृदस्पंदन में
उदृदाम भावावेग में
जब याद तुम्हारी आये
तो मैं गीत लिखूँ।

मन फागुन-फागुन हो जाये
मदमस्त पवन दुलराये
आम्र मंजरों में छिपकर
जब कोयल कूक सुनाये
तो मैं गीत लिखूँ

डोले गेहूं की बालियाँ
अंकुराए मन की क्यारियाँ
रससिक्त-नवकुसुमित कलियाँ
जब भ्रमरों को ललचाएँ
तो मैं गीत लिखूँ।

उन्मीलित नयनों में गोरी
मनमोहक स्वपन सजाए
मीठी यादों में खो कर
जब मंद-मंद मुस्काए
तो मैं गीत लिखूँ।

कुम्हलाए शरद-से मन में
छिटकीं सूरज की रश्मियाँ
पा अहसासों की ऊष्णता
जब मन-सरोज खिल जाये
तो मैं गीत लिखूँ।

- विजयानंद विजय

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#मोरल स्टोरीज

लघुकथा -

होली
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होली का दिन था।रंग-गुलाल का त्योहार।उसे पति की याद आ रही थी।अचानक सीमा पर आतंकवादी गतिविधियां बढ़ जाने के कारण छुट्टियां कैंसिल हो जाने की वजह से पहली होली पर पति के न आ पाने से आज उसका मन उदास था।पति के दोस्त और पास-पड़ोस के बच्चे बड़े उत्साह से मोहल्ले की नयी भाभी को होली के बहाने देखने आ रहे थे।परिवार के बुजुर्गों के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेते हुए उसके पास आते। "भाभी!भाभी!" करते हुए उसके गालों पर गुलाल लगाते।प्लेट में रखे काजू-किशमिश-मखाने के टुकड़े उठाते और खाते हुए निकल जाते। देवर सिद्धू उन्हें भाभी को गुलाल लगाते देखता रहता।मुस्कुराता रहता। उसे सिद्धू की मुस्कुराहट में कुटिल शरारत नजर आ रही थी।उसने सिद्धू से कहा -"तुम भी भाभी को गुलाल लगा लो।"
" नहीं।"उसने सिर और हाथ हिलाते हुए कहा-" सबको लगा लेने दीजिए।अंत में, जहां जगह बचेगी वहां मैं गुलाल लगा लूँगा।"सिद्धू का जवाब सुन वह ऊपर से नीचे तक सिहर गयी।बुरी तरह डर गयी।किशोरों-युवकों द्वारा होली के बहाने की जाने वाली अभद्रता और बदतमीजियों की बहुत-सी कहानियां उसने सुनीं-पढ़ी थीं।उनकी उद्दंडता से वह वाकिफ थी।अनजाने भय से वह कांप उठी।अचानक चुप हो गयी वह।पर्व- का दिन था।
परिवार में किसी से कुछ कह भी नहीं सकती थी।
देर शाम तक लोगों का आना-जाना लगा रहा।जब खाने का समय हुआ तो उसने ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठे सिद्धू से पूछा-" देवरजी,
आप अपनी भाभी से गुलाल नहीं खेलेंगे ?"
" क्यों नहीं भाभी ? जरूर।"सिद्धू अपनी जगह से उठा।उसके मन में समाया डर अब विशालकाय हो चुका था।मगर औपचारिकता तो निभानी ही थी।वह मन ही मन सहमी हुई सिद्धू को देखने लगी।टेबल पर रखी प्लेट से अबीर ले सिद्धू जब उसकी ओर बढ़ा, तो उसने अपनी आंखें बंद कर लीं।स्पर्श के एहसास से सहसा उसने आंखें खोलीं, तो देखा सिद्धू उसके चरणों में झुका हुआ था।" भाभी, यहीं मेरी जगह है।"वह अभिभूत हो उसे देखने लगी।उसने दोनों हाथों से उसे उठाया, और अपनी आंखों में उतर आए आंसुओं को आंचल के कोर से पोंछने लगी।फागुनी बयार ने उसके रोम - रोम को छू लिया था।होली के पावन रंगों से उसका तन - मन रंग गया था।

- विजयानंद ' विजय '
पता - विजयानंद सिंह
" आनंद निकेत "
बाजार समिति रोड
पो.- गजाधरगंज
बक्सर( बिहार )-802103
शिक्षा - एम.एस-सी; एम.एड्; एम.ए.(शिक्षा)
संप्रति - सरकारी सेवा(अध्यापन)
निवास - आरा (भोजपुर),बिहार
मो.- 9934267166

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VIJAYANAND SINGH
Email - vijayanandsingh62@gmail.com
Mobile - 9934267166

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#kavyotsav
नेह के दाने
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देहरी पर फुदकती चिड़िया।
चुगती नेह के दाने।
और, उड़-उड़ जा बैठती
छत की मुंड़ेर पर।
ढूँढ़ती, घर की रौनक।
आँगन की बैठक।
चूड़ियों की खनक।
पायल की रुनझुन।
शिशुओं का कलरव।
बड़ों का प्यार।
माँ की मनुहार।
दादाजी का दुलार।
और, घर के कोने-कोने से नि:सृत
निश्छल प्रेम की फुहार।
परंतु, अब गूँजती है
सिर्फ़, बूढ़ी दादी की खाँसी
घर के सन्नाटे को चीरती हुई।
अब नहीं होता -
ढलती शाम के साथ घरों से निकले
धुएँ के बादलों का आपस में मिलना।
नहीं जुटती अब नीम तले की चौपाल।
बंद हो गया जमुनिया फुआ का
घर-आँगन घूम
गाँव भर की कहानियां बाँचने का
सिलसिला भी।
कहाँ खो गई परिवारों की परंपरा
संस्कारों की सीख
स्नेह की शीतल छाँव
फागुन की रंगमंडली
दशहरे की नौटंकी
और, ग्रामीण एका ?
क्या निगल लिया है इसे
फ्लैटों में पनपती
मॉलों में पलती
लिफ्टों में चढ़ती इस पश्चिमोन्मुखी
अत्याधुनिक संस्कृति ने ?
यह क्षरण है, या कि -
संस्कृति का रूपांतरण ?
छत पर बैठी चिड़िया विह्वल - विचलित।
नेह के दाने तलाशती, उदास फुदकती।
इस देहरी से उस देहरी
इस मुंड़ेर से उस मुंड़ेर।
- विजयानंद विजय

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#kavyotsav
राष्ट्रीय काव्य लेखन प्रतियोगिता - 2018

कविता -

याद...
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नज़रें झुकाकर
हथेलियों से चेहरा छुपाना।
दुपट्टे का कोना मुँह में दबा
हर प्यारी बात पर
' धत् ' कहते हुए
बाँकी अदा से
तुम्हारा बार-बार शरमाना
है याद।

अपनी सारी बातें कहना
मेरी कुछ बातें सुनना।
बाहों-में-बाहें डाल
दीन-दुनिया से बेखबर
सपनों की गलियों में विचरना।

और -
शाम के साये में
सागर तट पर -
विस्तृत नीले नभ को
सागर के आगोश में समाते देख
मेरे काँधे से तुम्हारा सर टिकाना
है याद !

- विजयानंद विजय
पता - आनंद निकेत
बाजार समिति रोड
पो. - गजाधरगंज
बक्सर ( बिहार ) - 802103
मो. - 9934267166

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