Quotes by vandana A dubey in Bitesapp read free

vandana A dubey

vandana A dubey Matrubharti Verified

@vandanaadubey.877471
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कल सपने में इक आई लड़की
हाथ में थी पुस्तक है पकड़ी

हम बोले तुम कौन हो प्यारी
दिखतीं एकदम न्यारी न्यारी?

बोली मुझे नहीं पहचाना?
फिर तुम क्या गाओगे गाना?

चकराने की अब मेरी बारी
क्या कहती ये अबूझ नारी?

देखो पहेली अब न बुझाओ
कौन हो तुम, हमको समझाओ।

अरे पगले मैं हूँ हिंदी
देखते नहीं माथे की बिंदी?

जब मेरा दिवस मनाओगे
क्या कुछ न बतलाओगे।

चिंता में मेरी तुम क्या -
सब चिंतित ही नज़र आओगे।

लेकिन प्यारे-
राजदुलारे-

मैं ज़िंदा हूँ, ज़िंदा ही रहूँगी
राज किया है, राज करूँगी।

रोते-धोते हिंदी दिवस मनाओ न
उत्सव को शोक बनाओ न।

अब आओ पकड़ो हाथ मेरा
वादा करो- न छोड़ोगे साथ मेरा।

-vandana A dubey

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जब सरसों महके,
तब समझो बसन्त है,
जब कोयल चहके
तब समझो बसन्त है।
#वसंत

जब सरसों महके
तब समझो बसन्त है,
जब कोयल चहके
तब समझो बसन्त है
#वसंत

मेरी बगल में एक दादाजी बैठे हैं। ठेकुआ खा रहे हैं कुटुर- कुटुर। दांत एकदम चकाचक। शरीर भी दुरुस्त। वापी से लौट रहे हैं। नालन्दा जाएंगे, खेती देखने। बता रहे हैं कि अपना खाना वे खुद बनाते हैं। मैंने उम्र पूछी तो बोले- 90 बरस। बहुत अच्छा लगता है स्वस्थ-प्रसन्न, चलते-फिरते बुज़ुर्गों को देख के। वे बोलते जा रहे हैं- " पहले वापी नहीं जाता था। पत्नी ज़िंदा थी न तो हम दोनों रहे आते थे गांव में ही। तब भी मैं ही खाना बनाता था। फिर इसी सितम्बर में पत्नी मुझे धोखा दे गई। छोड़ के चली गयी।" आवाज़ भर्रा गयी है उनकी। शीशे से बाहर देखने लगे हैं। साथी की ज़रूरत, इसी उम्र में तो सबसे अधिक होती है।
#फिरचलदीसवारी

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हमारे घर के बाहर एक नल होता था। हम जब भी बाहर से लौटते, बाहर की चप्पल, शू-रैक पर रख के, अच्छे से हाथ-पैर धोते, फिर घर के अंदर जाते। बाहर की चप्पलें-जूते हमारे घर के अंदर कभी नहीं गए, उसी तरह घर की चप्पलें कभी बाहर नहीं गयीं। रसोई के अंदर तो घर की चप्पलें भी नहीं गयीं। वैसे भी केवल सर्दियों में ही घर के अंदर चप्पल पहनने की ज़रूरत पड़ती थी। टॉयलेट के बाहर एक जोड़ी चप्पलें हमेशा मौजूद रहती थीं। घर की चप्पलें टॉयलेट के अंदर नहीं जा सकती थीं। मम्मी अगर किसी बीमार को देखने अस्पताल जातीं, तो लौट के उनका नहाना तय था। कपड़े पानी में भिगा दिए जाते। बच्चों को मम्मी कभी अस्पताल नहीं ले जाती थीं ( वैसे कहीं भी नहीं ले जाती थीं 😢) किसी वजह से अस्पताल जाना ही पड़े तो यही प्रक्रिया हम लोगों के साथ दोहराई जाती।
मम्मी की रसोई चमचम करती। बना हुआ खाना सफेद धुले कपड़ों से ढँका होता। पानी के मटकों के मुंह भी सफेद कपड़ों से ढँके रहते। सफाई की इन आदतों ने हम सबको किसी भी मौसमी बीमारी से हमेशा बचाये रखा। चर्मरोग हमारे घर में कभी किसी को नहीं हुए।
सफाई की इन आदतों का पालन अधिकांशतः ख़त्म हो चुका है। पूरे घर में, रसोई में चप्पल पहनने का रिवाज़ अब आम है। अस्पताल से लौट के शायद ही कोई नहाता हो अब। इतना सब लिखने का मतलब केवल ये कि यदि हम इन आदतों को फिर अपना लें, तो कोरोना के दादाजी भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
#कोरोना

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मैने कभी ये सोच के कोई अच्छा काम नहीं किया, कि गांधीगिरि करूंगी, बस बचपन के संस्कार ऐसे थे, कि ग़लत करने की कभी हिम्मत नहीं हुई. झूठ बोलना पाप है- बताया था हमारे पापाजी ने, और आज भी झूठ से कोसों दूर हूं. सो बिना किसी प्रयास के लगभग रोज़ ही गांधीगिरि करती रहती हूं. खून में शामिल हो गयी है ये गांधीगिरि अब तो..... :) लिखने पर लगता है, जैसे मनगढ़ंत बात हो, लेकिन सच यही है, कि मेरी इस गांधीगिरि से मेरे परिवार वाले बहुत घबराते हैं. पतिदेव तो कहते हैं- ’किसी दिन घेरी जाओगी’ लेकिन क्या करूं... आदत से मजबूर हूं. आदत यानी वही-गांधीगिरि :)
#गांधीगिरि

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असल में मेरे अन्दर गांधीगिरि बचपन से भरी है. कहीं भी कुछ भी ग़लत दिखता है और मेरे भीतर का गांधी ज़िंदा होने लगता है, सिर उठाने लगता है अपना. लाख पिछले दिनों मैं संघमित्रा ट्रेन से पटना जा रही थी. ट्रेन में भीषण गंदगी, वो भी एसी कोच में. बस फिर क्या था? गन्दगी की बात हो और गांधी ज़ोर न मारे? सफ़ाई कर्मियों की जो क्लास ली, वो याद रखेंगे लम्बे समय तक. उन्हीं की झाड़ू से जो सफ़ाई अपने क्यूबिक में की, उसे यात्री भी न भूलेंगे. क्योंकि डांटा तो उन्हें भी था मैने, गन्दगी फ़ैलाने पर.

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