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Saurabh Pant

Saurabh Pant

@saurabhpant9961


मौन पड़ी जो लाश थी,
नहीं बाकी जिसमें श्वास थी।
मन ही मन वो सोच रही थी,
नसीब को अपने कोस रही थी।
किया ऐसा क्या पाप था,
जो मिला ऐसा श्राप था।
जन्म लिया तो गरीबी में,
मौत मिली तो बदनसीबी में।
ना मिला किसी से सहारा था,
मैं,गरीब कितना बेसहारा था।
क्या यही मेरा कसूर था,
कि देश का अपने मजदूर था।
पूछी नहीं गरीब से कैफ़ियत,
दिखा दी मुझको मेरी हैसियत।
परदेसियों में ऐसी क्या बात थी,
वापस उनको ला रही सरकार थी।
मेरा भी तो परिवार था,
जो कर रहा इंतजार था।
किस काम का ये प्रशासन,
मिला गरीब को जब सदा शवासन।
एक सवाल वो पूछ रही थी,
शायद मिले शांति मन को सोच रही थी।
उठ रहा था मन में उसके अंतिम विचार,
अगर है मेरा कोई अधिकार,गरीब की मौत का कौन जिम्मेदार?
                                          ~सौरभ पंत

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'माँ'🙏
कड़ी धूप की छाँव वही है,
मझधार की नाव वही है।

देख बेल को हरा-भरा,
लिखने को मेरा मन करा।
कल तक पड़ी थी जो मुरझाए,
देखने में एख आंख न भाए।
परिस्थिति जब थी विपरीत,
पत्ते दिखा के भागे पीठ।
क्या उसने नहीं सोचा होगा,
अकेले मुझसे क्या होगा।
शायद वो जिद पे अड़ी थी,
तभी तो अकेले खड़ी थी।
भले कोई न था आसपास,
खुद पर था उसका विश्वास।
वक्त है ये निकल जाएगा,
पत्ता ही नहीं फूल भी आएगा।
जिसका नहीं विश्वास डोलता,
वही हमेशा फलता फूलता।
कल तक थी जो न आंख को भाती,
आज देखो क्या खूब सुहाती।
पत्ता ही नही फूल भी आया,
आंगन संग घर भी महकाया।
समझ कवि को तब ये आया,
कुदरत ने क्या खेल रचाया।
परिस्थिति आड़े जरूर आएंगी,
इरादे जो बुलंद तो न गिरा पाएंगी ।
                            ~सौरभ पंत

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#एक मजदूर की गाथा
दिन-रात तेरा मैंने काम किया है,
तब जग ने तूझको नाम दिया है।
दिमाग भले ही तेरा था,
पर घिसता शरीर मेरा था।
तुझको दिया मैंने खुब कमा के,
आज ये आंखें तुझको तांके।
सोचा था तू बड़ी शख्सियत,
शर्म आ रही देख तेरी हैसियत।
मुसीबत में जहां होता तेरा सहारा,
ऐसे में तू कर रहा किनारा।
हमारे चलते तेरे ऐशो आराम,
उसके बदले तेरे ऐसे इनाम।
हमारे चलते तेरी खड़ी इमारत,
आज भगा रहा हमको फटाफट।
निकल पड़े हैं लेके झोला,
मैं मजदूर, जिसे समझती दूनिया भोला।
चलते-चलते जब लगी हरारत ,
रोड पे लेट मिटायी थकावट।
क्या तुझको तकलीफों का एहसास नहीं है,
भूखे पेट बच्चा मेरा सोता नहीं है।
आज बैठा हूँ जब रोड किनारे,
तब सोचा मैं था किसके सहारे।
किस्मत में थी मेरे मजदूरी,
बस यही थी मेरी मजबूरी।
माना तू है मेरा मालिक,
लेकिन याद रख हम सब का भी एक मालिक।
मेरा भी उसे दर्द दिखेगा,तब वो ऐसा खेल रचेगा।
न्याय प्रेमी है सबका मालिक, छपेगी तेरे कर्मों की कालिख।
                  'दिखावा करता जैसे तू भगवान्
                    कर्म है तेरे जैसे हैवान,बना फिरता तू अंजान'
हे इंसान!
              ~सौरभ पंत

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हे इंसान!
माना रच दिये तूने कई कीर्तिमान,
थल में तेरा पहरा, जल में तेरे यान
यहां तक की पहुंच गया तू आसमान।
देख तू अपना बढता कद,पार कर गया अपनी हद।
अपनी मस्ती में होके मस्त,
कर दिया तूने पर्यावरण त्रस्त।
काटता चला जा रहा सारे जंगल,
कारण केवल सोचा अपना मंगल।
करा जानवरों को तूने बेघर,
फिर कहता क्यों फिरते दर दर।
देख बेसहारा तू डाले फंदा,
रखे डरा-धमका के दिखा के डंडा।
सिर चढ़ बोल रहा अभिमान,
सोचे खुद को सर्वशक्तिमान।
भूल गया तू तुझसे महान,
है इस जग का पालनहारा कहते जिसको सब 'भगवान्'।
चलता है जब उसका डंडा,
कैद कर देता बिना डाले फंदा।
नाम दिया जिसको तूने महामारी,
दिखा रहा वो तूझको तेरी लाचारी।
वक्त है संभल जा हे इंसान,
वरना ढूंढे ना मिलेगा नामोनिशान।
      ~सौरभ पंत
#किंमत

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देख बेल को हरा-भरा,
लिखने को मेरा मन करा।
कल तक पड़ी थी जो मुरझाए,
देखने में एख आंख न भाए।
परिस्थिति जब थी विपरीत,
पत्ते दिखा के भागे पीठ।
क्या उसने नहीं सोचा होगा,
अकेले मुझसे क्या होगा।
शायद वो जिद पे अड़ी थी,
तभी तो अकेले खड़ी थी।
भले कोई न था आसपास,
खुद पर था उसका विश्वास।
वक्त है ये निकल जाएगा,
पत्ता ही नहीं फूल भी आएगा।
जिसका नहीं विश्वास डोलता,
वही हमेशा फलता फूलता।
कल तक थी जो न आंख को भाती,
आज देखो क्या खूब सुहाती।
पत्ता ही नही फूल भी आया,
आंगन संग घर भी महकाया।
समझ कवि को तब ये आया,
कुदरत ने क्या खेल रचाया।
परिस्थिति आड़े जरूर आएंगी,
इरादे जो बुलंद तो न गिरा पाएंगी ।
                            ~सौरभ पंत

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