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फिर किसी चेहरे ने दस्तक दी है दिल पर, इश्क़ होना तो लाज़मी है... © रविश 'रवि'
कहते हैं कि आगे बढ़ने के लिए सपनों का देखना बहुत जरूरी है या यूँ कहिये कि तरक्की करने के लिए सपनों का होना आवश्यक है... मगर उम्र बढ़ने के साथ सपनों की धार भी कुंद होती जाती है... थैली में सपने बहुत इकट्ठे हो जाते हैं क्योंकि ज़िन्दगी के अलग-अलग मोड़ों पर कुछ नये सपने जुड़ते चले जाते हैं... धीरे-धीरे खुद ये एहसास होने लगता है कि अब ये सपना हमेशा के लिए सपना ही रह जायेगा...हालाँकि दिल नहीं मानता मगर दिमाग कुछ और कहता है!!! कुछ सपनें अच्छे वक़्त के इंतेज़ार में दम तोड़ देते हैं... कुछ रोज़मर्रा की जरूरतों को पूरा करने की कोशिशों के तले दब जाते हैं... पर ये भी ज़िन्दगी का एक खूबसूरत पहलू है कि हर हाल में हम सपने देखना छोड़ते नहीं हैं चाहे ज़िन्दगी कितनी भी कठिनाईयों से गुज़र रही हो... ज़िन्दगी चलती रहती है और सपनों का बस्ता भारी होता रहता है... © रविनामा
आँगन की मुंडेर पर सोई-सोई चाँदनी किसी की यादों में खोई-खोई चाँदनी, सरक रही है रात आहिस्ता-आहिस्ता गुजर रही है याद आहिस्ता-आहिस्ता... © रविश 'रवि'
कमरों की दीवारों पर सोई सोई यादें दरवाजों पर वो थकी-थकी मुलाक़ातें, और थोड़ी देर में थक के लौट जाएगी तेरे ख्यालों में खोई-खोई ये रातें. © रविश 'रवि'
आज का दिन तो बस यूँ ही गुज़र गया, चाय, रजाई और कुछ भूली-बिसरी यादें... © रविश 'रवि'
बचपन से हमारे मन मस्तिक पर कुछ धारणाएं चस्पा हो जाती हैं जो हमेशा ही साथ चलती हैं... इन्हीं धारणाओं में से एक है कि साल के पहले दिन हम जो भी होगा या करेंगें...वो साल के हर दिन ही होगा... छोटे थे तो पहले दिन जरूर पढ़ते थे क्योंकि मन में विश्वास था कि अब हर रोज़ पढेंगें!!! दूसरी बात कि अब जनवरी है तो ठंड तो होगी ही तो कोशिश करते थे कि 1 तारीख को सबसे पहले नहाने की कोशिश करते थे...बेशक उसके अगले कई दिन तक नहीं नहाते थे लेकिन बाल मन में virtually मान चुके थे कि हम साल के हर दिन सबसे पहले नहा चुके हैं!!! उम्र बढ़ने के साथ-साथ समय और सोच के अनुसार कुछ और बातें साल दर साल...पहले दिन की दिनचर्या में जुड़ती रहीं... और अब जब उम्र के ना जाने कितने पड़ाव गुजर चुके हैं लेकिन मन में वही बात आज भी सिक्का जमाये हुए है कि पहले दिन जो भी करेंगें...वो साल के हर दिन ही होगा... आज जबकि जरूरतें बदल चुकी हैं...सोच बदल चुकी है...लेकिन बाल मन से बनी धारणा... आज भी साथ चल रही है और पूरे विश्वास के साथ कि साल के पहले दिन जो भी करेंगें वो साल के हर दिन ही होगा... और यकीन मानिये... ये विश्वास ही है जो ज़िन्दगी को हर साल... नए तरीके से जीने की सोच मन मे जगाता है... कुछ नया करने का जोश दिल में पैदा करता है... अपने सपनों को साकार करने का जज़्बा ले कर आता है... मंज़िलों को पाने की पुनः कोशिशें करता है... वरना तो साल दर दाल कैलेंडर ही बदलता है वक़्त और ज़िंदगी तो यूँ ही चलती रहती है... © रविश 'रवि'
उफ़्फ़!!! जाने कितनी उम्मीदें... जाने कितने सपने... जाने कितनी ख़्वाहिशें... साल-दर-साल टूटती चली गयीं... छूटती चली गयीं... ज़िन्दगी भी ख्वाहिशों को पूरा होने से बदल कर ख़्वाहिशें पूरा करने में करवट ले चुकी है... कुछ चाहतें... कुछ सपनें... कुछ उम्मीदें... आज भी टांग देता हूँ खिड़की पर... लिख कर... इसी उम्मीद में कभी तो होंगी पूरी कभी तो होंगी अपनी... © रविश 'रवि'
रात सरकती रही मैं दरकता रहा, चाँद चढ़ता रहा रात कटती रही, वक्त चलता रहा रात भी चलती रही, तेरे ख्वाबों के शानों पर मेरी रात बीतती रही... © रविश 'रवि'
'वो' पूछते हैं कि "हम" कौन हो? 'वो' लिखते हैं कि "हम" क्या हैं? अब "हम" ही बतलायें कि "हम" क्या हैं तो फिर तुम कौन हो??? © रविश 'रवि'
अधूरा सा था मैं, तूने मुकम्मल कर दिया धूप से तपते सहरा को साहिल कर दिया, आओ मिलें आज उसी तरह जैसे मिलें न हो कभी चाँद को छुपा दिया है रात को रोशन कर दिया. © रविश 'रवि'
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