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Ranjeev Kumar Jha

Ranjeev Kumar Jha Matrubharti Verified

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प्रशांत किशोर और बिहार: एक नई राजनीति का इंतज़ार!
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बिहार की सियासत अक्सर एक पुराने गाने की तरह लगती है—जाति, गरीबी, पलायन... यही सुर, यही ताल, यही बातें। दशकों से चल रहा यह राग अचानक एक नई आवाज़ से टकराया है। नाम है—प्रशांत किशोर। वही, जिन्हें कभी 'चुनावी जादूगर' कहा जाता था। जिनकी रणनीति ने प्रधानमंत्री बनाया, मुख्यमंत्री बचाए और नए सितारे गढ़े। आज वही जादूगर, खुद मैदान में हैं। अपने 'जन सुराज' के झंडे के साथ। सवाल सबके मन में है: क्या यह सिर्फ एक नया प्रयोग है, या वह पुराने गाने की धुन बदल देंगे?

मास्टरमाइंड अब मैदान में

प्रशांत किशोर का CV देखें तो लगता है मानो उन्होंने भारतीय राजनीति के बड़े-बड़े दाव-पेच खुद लिखे हों। 2014 में मोदी की जीत, 2015 में नीतीश का कमबैक, आंध्र में जगन की धूम और 2021 में दीदी की शानदार वापसी—हर मोड़ पर उनकी छाप थी। वह पर्दे के पीछे के वह खिलाड़ी थे जो चालें चलते थे। आज, वह पर्दे के सामने हैं। एक ऐसा खिलाड़ी जो अपने लिए खेल रहा है। बस फर्क इतना है कि अब उनके पास कोई 'क्लाइंट' नहीं, बल्कि एक 'सपना' है।

बिहार: वह जमीन जहाँ जात का पेड़ गहरा है

बिहार की राजनीति की जड़ें जाति की धरती में कितनी गहरी हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। यहाँ का वोट अक्सर यादव, मुसलमान, दलित, कोईरी, कुर्मी... इन्हीं टोकरियों में बंटा होता है। हर पार्टी का एक खास समीकरण होता है, एक खास जमात। प्रशांत किशोर इसी समीकरण को तोड़ने की बात करते हैं। उनका मंत्र है— "अब नहीं चलेगा जात का जादू, अब चलेगा काम का जादू।" यह नारा दिमाग में घुस जाता है, दिल को छू लेता है। मगर सवाल यह है कि क्या यह दिल, जात के बंधन तोड़ पाएगा? यही सबसे बड़ी परीक्षा होगी।

प्रशांत किशोर की 'जन सुराज' पदयात्रा को सिर्फ एक चुनावी दौरा न समझें। यह एक तरह का 'लाइव प्रोजेक्ट' है। हज़ारों किलोमीटर चलकर, हज़ारों लोगों से मिलकर, उनकी समस्याएँ सुनकर एक 'जनता का घोषणापत्र' तैयार करना। यह विचार पुरानी गांधीवादी पदयात्राओं जैसा लगता है, लेकिन इसकी आत्मा में आधुनिक टेक्नोलॉजी और डेटा का इस्तेमाल है। अगर यह मॉडल काम कर गया,तो यह देश में पहली बार होगा जब जनता की आवाज़ सीधे सरकार के एजेंडे में तब्दील होगी। और अगर नहीं, तो यह साबित हो जाएगा कि बिहार में भावनाएँ, तर्क से ज्यादा ताकतवर हैं।

मैदान में पुराने शातिर खिलाड़ी मौजूद हैं:

· नीतीश कुमार: 'विकास पुरुष' का तमगा अब मद्धिम पड़ा है, सत्ता के लिए उनके फैसलों पर सवाल उठते हैं।
· तेजस्वी यादव: युवा उर्जा तो हैं, लेकिन 'परिवारवाद' और पुराने भ्रष्टाचार के आरोपों की छाया से अभी आज़ाद नहीं हुए।
· भाजपा: उनका खेल मोदी की लोकप्रियता और राष्ट्रीय मुद्दों पर टिका है।

इस पुराने खेल में, PK का दांव नया है। न कोई जातीय समीकरण, न कोई राजनीतिक वंशवाद। बस एक विचार— काम की राजनीति का। यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है, और शायद, सबसे बड़ी चुनौती भी।

अगर प्रशांत किशोर का यह दांव चल गया, तो बिहार ही नहीं, देश की राजनीति की बुनियाद हिल सकती है। वोट की भाषा बदल सकती है—जाति नहीं, काम। और अगर नहीं चला, तो यह मानना पड़ेगा कि भारतीय लोकतंत्र का फार्मूला अभी भी वही है: 'जात पर वोट, विकास की उम्मीद, और सत्ता के लिए समझौता'।

प्रशांत किशोर सिर्फ एक नेता नहीं, एक 'आईडिया' हैं। बिहार की यह जंग, सिर्फ सत्ता की जंग नहीं है। यह दो विचारों की लड़ाई है— पुराने बनाम नए का, जाति बनाम काम का, वंशवाद बनाम विचारवाद का। अब बस इंतज़ार है उस एक नतीजे का, जो तय करेगा कि यह नई कहानी, बिहार के लिए एक नई सुबह लाएगी या फिर इतिहास के पन्नों में एक कोरे पन्ने की तरह दर्ज होकर रह जाएगी।
आर के भोपाल

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कैलाश पर्वत : बर्फ़ की चादर में लिपटा सृष्टि का अनसुलझा रहस्य!
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हिमालय की चोटियों में, जहाँ हवा पतली हो जाती है और समय जैसे ठहर जाता है, वहाँ खड़ा है एक शिखर—कैलाश पर्वत।
यह सिर्फ एक पर्वत नहीं, बल्कि रहस्यों की जमी हुई गाथा है। ऐसा लगता है मानो प्रकृति ने यहाँ अपने रहस्य किसी ताले में बंद कर दिए हों और चाबी मानव सभ्यता से छिपा ली हो।

1. शिखर जो किसी ने नहीं छुआ।

6,638 मीटर ऊँचा कैलाश, ऊँचाई में एवरेस्ट से छोटा है, पर चुनौती में कहीं बड़ा। दुनिया के सबसे साहसी पर्वतारोही भी इसकी चोटी तक नहीं पहुँच पाए।
क्यों?
क्योंकि चढ़ाई शुरू होते ही थकान इतनी बढ़ जाती है जैसे शरीर से प्राण रस खिंच रहा हो। कुछ पर्वतारोहियों ने तो यहाँ अचानक बूढ़ा हो जाने की अनुभूति तक बताई है। मानो यह पर्वत स्वयं तय करता हो—कौन उसके करीब जाएगा, और कौन नहीं।

2. चारों दिशाओं का ध्रुवबिंदु

कैलाश को घेरकर चार महान नदियाँ बहती हैं—सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सतलुज और कर्णाली।
कल्पना कीजिए, एक ही पर्वत से चारों दिशाओं में जीवनदायिनी नदियाँ बह निकलीं। यह संयोग नहीं हो सकता। यह मानो सृष्टि का जलमंडल का नियंत्रण केंद्र है।

3. पौराणिक गूढ़ता

हिंदुओं के लिए यह शिव का धाम है, जहाँ वह समाधि में लीन हैं।

बौद्ध इसे "कांग रिंपोचे" यानी रत्नों का पर्वत कहते हैं।

जैनों के लिए यह मुक्ति-स्थल है, जहाँ आदिनाथ ने कैवल्य पाया।

और तिब्बती बॉन धर्म इसे ब्रह्मांड की धुरी मानता है।

चार धर्म, चार दृष्टिकोण—पर सभी इसे सृष्टि का केंद्र मानते हैं। यह कैसा संयोग, या यूँ कहें कि कैसा दिव्य संकेत!

4. झीलों का रहस्य : जीवन और मृत्यु का द्वंद्व।
कैलाश के चरणों में दो झीलें हैं—मानसरोवर और राक्षसताल।

मानसरोवर गोल है, शांत, निर्मल और सौम्य—मानो चेतना की झील।

राक्षसताल अर्धचंद्राकार, उथल-पुथल भरा, अशांत—मानो अंधकार की झील।

सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा का यह द्वंद्व साथ-साथ अस्तित्व में है। मानो स्वयं कैलाश कह रहा हो—“सृष्टि संतुलन पर टिकी है।”

5. वैज्ञानिक गुत्थियाँ

उपग्रह से देखने पर कैलाश का आकार प्राकृतिक नहीं लगता। यह किसी विशाल पिरामिड जैसा है, और आसपास दर्जनों छोटे-छोटे पिरामिडनुमा शिखर पाए गए हैं।

यात्रियों ने अनुभव किया कि यहाँ घड़ियाँ तेज़ चलने लगती हैं, दिशा-बोध बिगड़ जाता है। मानो यह पर्वत समय और स्थान की धुरी को मोड़ देता हो।

परिक्रमा के दौरान एक विचित्र बात सामने आती है—चाहे आप कितनी भी दूर चले जाएँ, कैलाश का शिखर मानो आपके साथ-साथ चलता है, हमेशा एक ही दूरी पर।

6. रहस्य का अंतिम परदा

कैलाश हमें यह सिखाता है कि मनुष्य सब कुछ जीत नहीं सकता। कुछ स्थल केवल अनुभव करने के लिए हैं, विजय पाने के लिए नहीं।
यह पर्वत अहंकार तोड़ता है, श्रद्धा जगाता है और चेतना की गहराइयों में उतरने का निमंत्रण देता है।
कैलाश खड़ा है—
निःशब्द, अचल,
मानो ब्रह्मांड का हृदय।
जो उसके रहस्य को समझना चाहता है, उसे तर्क नहीं, श्रद्धा और समर्पण की आवश्यकता है।
आर के भोपाल।

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बरेली का झुमका – मोहब्बत की मस्त कहानी, सेल्फी का नया ठिकाना।
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हर शहर की अपनी शान होती है। जैसे -
इंदौर का पोहा-जलेबी,
बनारस का पान,
लखनऊ का तहज़ीब,
पटना का दुर्घटना,
अलीगढ़ का ताला,
लेकिन बरेली?

भाई, यहाँ का असली ब्रांड तो था बरेली का सूरमा।
लगा लो आँख में और सबको घूरो — चमक इतनी कि पड़ोसी भी बोले "कहाँ से लाए?"
मगर लोगों की ज़ुबान पर सूरमा नहीं, झुमका चढ़ा।
और सारा क्रेडिट जाता है एक फिल्मी गाने को।

कहानी की फुल-टू फिल्मी स्क्रिप्ट!

सन 1941 का बरेली।
क्रिसमस की छुट्टियाँ चल रही थीं।
इलाहाबाद के शायर हरिवंश राय बच्चन टूटे-फूटे दिल के साथ बरेली आए।
वहीं मिल गईं लाहौर की प्रोफेसरनुमा तेजी सूरी।

सुबह चाय पर मुलाकात हुई,
शाम को बच्चन जी ने कविता पढ़ी,
रात को दोनों रोते-रोते एक-दूसरे से लिपट गए।
और दूसरे ही दिन दोस्त ने गले में फूलों की माला डालकर अनौपचारिक सगाई करवा दी।

मतलब, ये प्यार था या स्टार्ट-अप पिच मीटिंग?
24 घंटे में "डील फाइनल"।

तेजी ने मजाक में कहा था —
"मेरा झुमका तो बरेली के बाजार में गिर गया है।"
और वहीं से ये लाइन इतिहास में दर्ज हो गई।

गाना बना और बरेली का नाम चमक गया

मेहंदी अली खान, जो बच्चन परिवार के दोस्त थे,
उन्हें यह "झुमका वाला किस्सा" सालों तक याद रहा।
फिर 25 साल बाद जब फिल्म 'मेरा साया' के लिए गाना लिखना था,
तो उन्होंने यही लाइन साधना पर ठोक दी -

"झुमका गिरा रे, बरेली के बाजार में..."

अब फिल्म हिट, गाना सुपरहिट, और बरेली एकदम इंटरनेशनल ब्रांड।
यानी न झुमका यहां बना, न गिरा —
लेकिन नाम बरेली का ही हुआ।

55 साल बाद – झुमका सचमुच टांग दिया।

समस्या ये थी कि लोग इतने सालों से पूछते रहे —
"कहाँ गिरा झुमका? हमें भी दिखाओ!"

तो बरेली डेवेलपमेंट अथॉरिटी ने कहा —
"लो भई, अब देख लो!"
और NH-24 पर 14 मीटर ऊँचा झुमका टांग दिया।
नाम रख दिया — झुमका तिराहा।

अब हालत ये है कि सेल्फी के बिना कोई वहाँ से गुजर ही नहीं सकता।
लड़कियाँ फोटो खिंचवाते हुए कहती हैं —
"देखो, यही है वो झुमका जो गिरा था..."
और लड़के लाइन मारते हैं —
"तुम्हारा कब गिरेगा?"

असल में झुमका कभी गिरा ही नहीं,
गिरा था तेजी सूरी का दिल,
और उसे उठा लिया था हरिवंश राय बच्चन ने।
बाकी आज भी, जब बरेली का नाम आता है,
तो लोग सूरमे की नहीं,
बल्कि झुमके की चमक याद करते हैं।
तो अगली बार जब कोई पूछे "बरेली का झुमका कहाँ गिरा था?"
तो कह देना — "दिल के बाजार में, मोहब्बत के सौदे में, और अब हाईवे पर सेल्फी प्वाइंट में।
आर के भोपाल

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"प्लासी की गद्दारी: रॉबर्ट क्लाइब का जादू या हमारे अपने गद्दारों का कमाल?"

1757 की उमस भरी जून की दोपहरी। जगह—प्लासी का मैदान। चारों तरफ़ फैले थे आम के बगीचे—“लक्काबाग”—जहाँ आम कम, ग़द्दारी ज़्यादा पक रही थी।
एक तरफ़ थे बंगाल-बिहार-उड़ीसा के नवाब सिराजुद्दौला, 35 हज़ार पैदल, 15 हज़ार घुड़सवार और सैकड़ों तोपों के मालिक। दूसरी तरफ़ थे रॉबर्ट क्लाइव—ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक मामूली क्लर्क, जिसके पास मुश्किल से 200 अंग्रेज, 300 देसी सिपाही और थोड़ी-सी तोपख़ाना थी।

अगर युद्ध इतिहास पढ़ने वाला कोई छात्र इसे पहली बार सुने, तो यही पूछेगा—“ये लड़ा था या मज़ाक था?”
क्योंकि परिणाम वही था, जो होना नहीं चाहिए था—सिराजुद्दौला हार गया, क्लाइव जीत गया।
और हैरानी की बात? अंग्रेज़ों के सिर्फ़ 20 आदमी मरे—7 गोरे, 13 काले।

असल में मैदान में लड़ाई सिराज और क्लाइव की नहीं थी। लड़ाई थी ईमान बनाम लालच की।
नवाब की फ़ौज में बैठे मीर जाफ़र, मीर क़ासिम, जगत सेठ, अमीचंद, नन्दकुमार, मेहँदी निसार जैसे तथाकथित “विश्वस्त” ही असल खेला कर रहे थे। तोपें खड़ी थीं, पर दागी नहीं गईं। तलवारें चमकीं, पर चली नहीं। और सिराज की “अपनों पर भरोसे की भूल” उसकी बर्बादी बन गई।

जब लड़ाई ख़त्म हुई, तो हाथी पर सवार क्लाइव मुर्शिदाबाद पहुँचा।
वहाँ का नज़ारा चौंकाने वाला था—मीर जाफ़र और उसके चमचे, अमीचंद, जगत सेठ, नन्दकुमार, मेहँदी निसार—सब कतार में खड़े, स्वागत को बेताब।
क्लाइव ने मन ही मन सोचा, “अगर ये लाखों लोग एक-एक चुटकी मिट्टी भी मेरी ओर फेंक दें, तो मैं और मेरी सेना यहीं गड़ जाऊँ।” लेकिन हुआ उल्टा। वही लोग उसके आगे बिछते चले गए, जैसे कोई देवता उतर आया हो।

इसी बीच खबर आई—मीर जाफ़र का भाई मीर दाऊद और दामाद मीर क़ासिम ने सिराजुद्दौला को पकड़कर सौंप दिया है।
बस, यहीं क्लाइव के दिमाग़ में एक बिजली कौंधी—“अब तो पूरा हिंदुस्तान हमारी जेब में है।”
और हक़ीक़त भी यही बनी। मुर्शिदाबाद पर क़ब्ज़ा करके ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ऐसा धागा डाला कि देखते-देखते पूरा भारत ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के कदमों तले जा पहुँचा।

अब सवाल यह नहीं रह गया था कि बंगाल का नवाब कौन होगा।
सवाल यह था कि हिंदुस्तानी किसकी कोर्निश करेंगे, किसके तलवे चाटेंगे—अपने ही किसी नवाब के, या फिरंगी क्लाइव के?

असली सबक

इतिहास हमें साफ़-साफ़ आईना दिखाता है।
भारत को कभी कोई विदेशी असली ताक़त से गुलाम नहीं बना सका।
ग़ुलामी हमेशा “भीतर” से आई—अपने ही लालची अमीरों, सत्तालोलुप दरबारियों और आम जनता की चुप्पी से।
प्लासी सिर्फ़ एक युद्ध नहीं था, यह भारत की आत्मा की हार थी।
और सच्चाई यह है कि वह बीमारी आज भी ज़िंदा है—चेहरे बदलते हैं, लेकिन खेल वही चलता है।
हम आज भी ताकते रहते हैं—“अब किसकी कोर्निश करनी है?”
आर के भोपाल

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1990–2005: बिहार का “अपराध युग” 🚔
​दशकों तक बिहार ने गरीबी, बाढ़ और सामाजिक असमानता के खिलाफ संघर्ष किया है, लेकिन 1990 के दशक में इसने एक और अभिशाप का सामना किया: अपराध। यह वह समय था जब राज्य में कानून-व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई थी। इस दौर को "लालू-राज" (1990-1997: लालू प्रसाद; 1997-2005: राबड़ी देवी) के नाम से जाना जाता है, और यह तीन प्रमुख स्तंभों पर आधारित एक आपराधिक परिदृश्य को दर्शाता है: जातीय नरसंहार, अपहरण-उद्योग और बड़े आर्थिक अपराध।
​जातीय नरसंहार: “किलिंग फील्ड्स” की भयानक गाथा 💔
​बिहार में सामाजिक-आर्थिक ध्रुवीकरण बहुत गहरा था। भूमि विवाद, मजदूरी और जातीय वर्चस्व की लड़ाई अक्सर सामूहिक हत्याओं में बदल जाती थी। इस दौरान कई नरसंहारों ने राज्य को हिला दिया।
​बारा (1992): एमसीसी (MCC) के दस्ते ने 40 ऊंची जाति के लोगों को बेरहमी से मार डाला। यह निजी मिलिशिया और वामपंथी उग्रवादी समूहों के बीच चल रहे खूनी संघर्ष की शुरुआत थी।
​बथानी टोला (1996): रणवीर सेना (Ranvir Sena), एक निजी मिलिशिया समूह ने 21 दलितों, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, की हत्या कर दी।
​लक्ष्मणपुर-बाथे (1997): यह राज्य के इतिहास का सबसे भयानक नरसंहार था, जिसमें रणवीर सेना ने 58 दलितों का कत्लेआम किया।
​ये घटनाएं सिर्फ हिंसा की कहानी नहीं कहतीं, बल्कि कमजोर अभियोजन की भी पोल खोलती हैं। कई मामलों में, आरोपी सबूतों के अभाव में बरी हो गए, जिसने न्याय प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए।
​अपहरण-उद्योग: रोज़ाना का धंधा 💰
​1990 के दशक में, "फिरौती के लिए अपहरण" एक संगठित उद्योग बन गया था। 2001 और 2005 के बीच, राज्य में इस तरह के 1,778 मामले दर्ज किए गए, जिसका मतलब था कि औसतन लगभग एक अपहरण हर दिन होता था। व्यवसायी, डॉक्टर, सरकारी कर्मचारी और यहां तक कि बच्चे भी अपहरणकर्ताओं के निशाने पर थे।
​इस “उद्योग” की सफलता का कारण राजनीतिक संरक्षण, गैंग नेटवर्क और पुलिस की अक्षमता थी। पुलिस की निष्क्रियता और अभियोजन की कमजोरी ने अपराधियों के हौसले बुलंद किए, जिससे यह एक सामान्य और लाभकारी व्यवसाय बन गया।
​बड़े आर्थिक अपराध: चारा घोटाला 💸
​चारा घोटाला एक ऐसा बड़ा वित्तीय अपराध था जिसने बिहार की राजनीति को हिला दिया। पशुपालन विभाग के माध्यम से सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये की अवैध निकासी की गई। इस घोटाले में कई वरिष्ठ अधिकारी और राजनेता शामिल थे, जिनमें लालू प्रसाद भी शामिल थे। यह केस अपराध और राजनीति के बीच सांठगांठ का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया।
​इन घोटालों ने सरकारी प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया और यह दर्शाया कि कैसे राजनीतिक शक्ति का उपयोग व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जा सकता है।
​क्या था “जंगलराज” का सार? 🌳
​"जंगलराज" शब्द का उपयोग अक्सर इस अवधि का वर्णन करने के लिए किया जाता है, और यह पूरी तरह से उचित है। यह सिर्फ हिंसा या अपराध की संख्या नहीं थी, बल्कि यह शासन की विफलता थी। राज्य अपने नागरिकों को सुरक्षा देने में बार-बार विफल रहा।
​इस स्थिति के लिए जिम्मेदार प्रमुख कारक थे:
​कमजोर कानून-व्यवस्था: पुलिस की संख्या कम थी, जांच की क्षमता खराब थी और गवाहों की सुरक्षा बिल्कुल भी नहीं थी।
​अपराध-राजनीति का गठजोड़: कई राजनेताओं पर अपराधियों को संरक्षण देने का आरोप था, जिससे न्याय मिलना असंभव हो गया था।
​न्याय प्रणाली की विफलता: उच्च न्यायालयों में बार-बार दोषमुक्त होने से यह स्पष्ट हो गया था कि सबूतों को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं किया जा रहा था।
​बिहार में अपराध का यह दौर आज भी कई लोगों के दिमाग में एक गहरे जख्म की तरह है। पिछले दो दशकों में स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन 1990-2005 की भयावहता ने राज्य के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने पर एक अमिट छाप छोड़ दी है।

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कितना प्यार किया था तुमको,भागता था तुम्हारे पीछे तेरे प्यार में।
अब नफरत करता हूं मैं तुमसे, भागता अब भी हूं,मगर तेरे नफरत के साथ,तुमसे दूर...।
मेरा भागना निरंतर जारी है,पहले तुम्हारी तरफ,अब तुमसे दूर...., बहुत दूर!!!

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