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Rajesh Maheshwari लिखित कहानी "क्षितिज (काव्य संकलन) - 1" मातृभारती पर फ़्री में पढ़ें https://www.matrubharti.com/book/19922317/kshitij-1
सच्चा कर्म नर्मदा नदी के तट पर एक महात्मा जी अपनी कुटिया में रहते थे। वे दिनभर प्रभु की भक्ति में तल्लीन रहकर उनका नाम जपा करते थे। एक व्यक्ति भी उनकी भक्ति भाव देखकर उनकी कुटिया की साफ सफाई करता रहता था और अपनी दिनभर की कमाई से जो भी धन उसे प्राप्त होता था उसे यथा संभव गरीब भिखारियों एवं अच्छे कार्यों में बांट दिया करता था। एक दिन उन दोनो की मृत्यु हो जाती है और जब उनकी आत्मा यमराज के पास पहुँचती है तब यमराज उनके कर्मों का हिसाब देखकर उस व्यक्ति को स्वर्ग पहुँचा देते है और महात्मा जी को वापिस पृथ्वी पर भेजने का निर्देश देते हैं यह सुनकर महात्मा जी यमराज से पूछते है कि वह व्यक्ति मेरे समान प्रभु भक्ति में कभी लीन नही रहता था फिर भी उसे स्वर्ग भेजा जा रहा है और मुझे वापिस पृथ्वी लोक भेजा जा रहा है ऐसा क्यों ? उनकी बात सुनकर यमराज जी ने कहा तुम प्रभु का नाम लेते जरूर थे परंतु तुम्हारा मन हमेशा कुटिया में आ रहे बडे बडे धनाढ्य व संपन्न व्यक्तियों द्वारा दिये जाने वाले दान और वस्तुओं के प्रति आकर्षित रहता था तुम ईश्वर की भक्ति करते समय भी अपने विलासिता पूर्ण जीवन जीने की अभिरूचि रखते थे और सुंदर स्त्रियों को देखकर तुम्हारा मन विचलित होता था और उन्हें आशीर्वाद देने के बहाने अपनी वासना की पूर्ति करने का प्रयास करते थे। तुमने कभी भी दान में प्राप्त धनराशि को सदकार्यों में खर्च नही किया। तुम्हारा यह साथी तुम्हारी कुटिया की साफ सफाई एवं तुम्हारे सभी कार्यों को निस्वार्थ रूप से सेवाभाव से करता था इसने कभी भी जीवन में गलत तरीके से धन कमाने की कोशिश नही की एवं जो कुछ भी इसे दिन भर में प्राप्त हो जाता था उससे संतुष्ट होकर खुश रहता था और अपनी आवश्यकता से अधिक धन को जरूरतमंदो के लिये खर्च कर देता था। यह प्रभु का नाम सच्चे मन से स्मरण करता था। अब तुम्ही बताओ किसकी भक्ति ज्यादा श्रेष्ठ है ? यह सुनकर महात्मा जी निःशब्द हो गये और यमराज के निर्णय का स्वीकार के वापिस पृथ्वी पर पुनर्जन्म हेतु प्रस्थान कर गये।
नयी सोच नयी उडान मैं अपने जन्मदिवस पर चिंतन करता हूँ कि जहाँ जन्म है वहाँ एक दिन मृत्यु का होना भी निश्चित है। मैं हमेशा जन्मदिवस पर मानसिक रूप से अपने सेवा, समर्पण, त्याग और सत्कर्मों के विषय में सोचता हूँ और प्रयासरत रहता हूँ कि सदभावनाओं के दीप प्रज्जवलित होकर जन्मदिवस इनकी रोशनी से जगमगाए और हमें नयी प्रेरणा दे। मैंने इस वर्ष अपना 69 वां जन्मदिवस माँ नर्मदा कृपा से कुछ अभिनव रूप से मनाया। इस अवसर पर हमारे परिवार द्वारा सनातन संस्कृति का पालन करते हुए चिन्मय मिशन रीवा के ब्रम्हचारी शिवदास जी महाराज के सानिध्य में विष्णु सहस्त्रनाम अर्चना का आयोजन किया गया जिसमें हमारे नजदीकी परिचितों को भी आमंत्रित किया गया था। कार्यक्रम समापन के पश्चात 69 पक्षियों को बच्चों के द्वारा पिंजडों से मुक्त करके उन्मुक्त गगन में छोडा गया। इस कार्य के माध्यम से मुझे अत्यंत संतुष्टि और आनंद प्राप्त हुआ और बच्चे भी बहुत उल्लासित हुये। पक्षी विक्रेता द्वारा इतनी अधिक संख्या में पक्षी खरीदने पर एक पक्षी और मुफ्त में दे दिया गया था। जब हम पक्षियों को घर पर लाये तो बाकी पक्षी तो उड गये परंतु वहीं एक पक्षी नही उड पा रहा था। मुझे महसूस हुआ कि शायद यह पक्षी बीमार है और इसे वापिस कर देना चाहिए यह सुनकर मेरा एक कर्मचारी बोला कि साहब बीमार होने के कारण यदि आप इसे उन्हें वापिस कर देंगे तो हो सकता है कि वे इसे मार दें अतः इसे आप मुझे दे दीजिए और वह उसे अपने साथ ले गया। उसकी सेवा एवं उचित इलाज के कारण कुछ ही दिनों में वह ठीक होकर उड गया। इस प्रकार प्रभु कृपा से एक जीव की जीवन रक्षा भी हो गई। उस कर्मचारी की सेवा भावना देखकर मुझे लगा की आज भी दुनिया में करूणामयी सेवाभावी लोगों की कमी नही है जो कि सेवा के लिये सदैव तत्पर एवं समर्पित रहते है।
जन्मदिन की शुभकामनाएँ जन्मदिन की मंगल बेला पर हर्षित है हमारे मन प्रभु से है यही प्रार्थना मंगलमय हो आपका जीवन स्वभाव आपका ऐसा निर्मल जैसे गंगा का हो जल व्यक्तित्व में आपके झलकता है सच्चाई, ईमानदारी और परिश्रम का बल सभी के प्रति सेवा और श्रद्धा के संकल्प से मिला असीम स्नेह व सम्मान सबका प्रेम व आदर पाकर जीवन हो रहा महान सत्यम शिवम् सुंदरम की भावना को अपनाकर सपनों को किया साकार प्रगति से आपकी जगमग हो रहा घर संसार परमपिता परमात्मा से यही है हमारी कामना सद्भाव और सद्कर्मों की सदैव बनी रहे भावना। -- राजेश माहेश्वरी
जीवन की सार्थकता जबलपुर शहर में नर्मदा नदी के किनारे स्वामी प्रशांतानंद जी का आश्रम था जिसमें उनके दो शिष्य अभयानंद और अजेयानंद भी उनकी सेवा में रहते थे। उन दोनों के स्वभाव में काफी भिन्नता थी। स्वामी अजेयानंद अपने मन को भगवान के प्रति श्रद्धाभाव से समर्पित करने की प्रबल इच्छा रखते थे परंतु वह प्रभु का नाम दिन रात लेने के बाद भी अपने मंतव्य में एकाग्रता नही ला पाते थे, उनका मन प्रतिक्षण यहाँ से वहाँ भटकता था और वे अकर्मण्य होकर प्रभु का नाम लेने में ही जीवन की सार्थकता समझते थे। उनके मित्र स्वामी अभयानंद भगवान के प्रति श्रद्धाभाव तो रखते थे परंतु स्वामी अजेयानंद से विपरीत केवल प्रातः और सायंकाल ही प्रभु दर्शन हेतु मंदिर जाते थे और प्रभु से जनसेवा हेतु शक्ति प्रदान करने की प्रार्थना करते थे। वह पूरा समय गरीबों, असहायों एवं बीमारीयों से ग्रस्त दीन हीन व्यक्तियों की सेवा में ही तन, मन और धन से लगे रहते थे। वह अपनी इसी सेवा को प्रभु के प्रति समर्पण और साधना समझते थे। एक दिन स्वामी अजेयानंद ने लंबी तीर्थयात्रा के बाद आश्रम लौटे अपने गुरू से पूछा कि स्वामी अभयानंद तो दिनरात केवल सेवा में लगे रहते हैं उनके पास तो साधना के लिये समय ही नही है ऐसी स्थिति में क्या वे मोक्ष के अधिकारी होंगे ? गुरूजी ने उनसे कहा कि प्रभु कि सदैव अभिलाषा रहती है व्यक्ति सद्कार्यों में अपना जीवन व्यतीत करें ना कि अकर्मण्य होकर बैठा रहें। उन्होंने समझाते हुए कहा कि प्रभु का नाम लेना साधन है परंतु साध्य जरूरतमंदों की मदद करना है अपने मन को शुद्ध रखना और अनैतिक कार्यों से बचते हुए सत्य के मार्ग पर चलना यही जीवन का ध्येय है। यदि दिनभर प्रभु का नाम जपते रहो और मन में प्रभु के प्रति समर्पण न हो तो सिर्फ नाम जप लेने से ही मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती। स्वामी अभयानंद निश्चित ही प्रभु के मंतव्य को पूरा कर रहें हैं परंतु तुम अकर्मण्य होकर केवल नाम स्मरण कर रहे हो जिससे तुम पुण्य फल के तो अधिकारी हो परंतु मोक्ष के नही इसलिये तुम्हें भी नाम जप के साथ दीन, दुखियों और असहायों की सेवा करनी चाहिये तभी तुम प्रभु के मंतव्य को पूरा कर मोक्ष के अधिकारी बनोगे। यहीं प्रभु के प्रति वास्तविक पूजा एवं श्रद्धा है। प्रभु का नाम लेकर हमें प्रार्थना करनी चाहिये कि हमें सद्भाव और सद्कर्मों का जीवन जीने की शक्ति मिले ताकि हम अपना इहलोक और परलोक दोनों में सुखी रहकर अपने जीवन का उद्धार कर सकें।
सन्यासी परमसुखी जबलपुर शहर के पास पवित्र नर्मदा नदी के किनारे बसे मनगंवा नामक गांव में हिमालय की तराई से आये हुये एक महात्मा जी ग्रामवासियों के अनुरोध पर वहाँ पर बस गये थे। वे अत्यंत संयमी, चरित्रवान एवं आदर्शवादी व्यक्ति थे और उन्हें धन संपत्ति का कोई लालच नही था। वे केवल फलाहार ही ग्रहण करते थे। जिसकी व्यवस्था गांव वाले बारी बारी से स्वयं ही कर देते थे। महात्मा जी सदैव प्रभु की भक्ति एवं सेवा में पूर्ण समर्पित रहते थे। उन्होनें इस गांव को एक आदर्श गांव के रूप में बनाने का अपना सपना पूरा किया था। गांव के सभी रहवासी अत्यंत विनम्र, ईमानदार एवं आपस में भाईचारा रखते हुए एकदूसरे की मदद को सदैव तत्पर रहते थे। एक दिन रात्रि के समय स्वामी जी गहरी निद्रा में सो रहे थे तभी उन्हें ऐसा अहसास हुआ कि भगवान साक्षात् प्रकट होकर मानो उनसे पूछ रहे है कि देखो संत जी आपके पूर्ण समर्पण श्रद्धा और लगन से मेरे प्रति आपने अपना जीवन दे दिया अब आपकी मृत्यु सन्निकट है। उन्होनें इसके प्रत्युत्तर में प्रभु से हाथ जोडकर प्रार्थना की हे भगवान मेैं तो आजीवन आपका सेवक रहा हूँ और अपने जीवन से पूर्ण संतुष्ट हूँ। मैं मृत्यु को भी वैसे ही स्वीकार करना चाहूँगा जैसे जन्म के समय खुशी होती है। प्रभु मेरी यह इच्छा कि जिस विधि से आपको प्रसन्नता प्राप्त हो उसी विधान से मैं देह त्याग की इच्छा रखता हूँ। यह सुनकर प्रभु भी आश्चर्य में पड गए कि यह कितना समर्पित भक्त है जो मृत्यु में भी ईश्वर की खुशी की ही इच्छा करता है। उसी समय उनकी निद्रा खुल गयी और प्रातः काल उन्होंने गांव वालों को अपने स्वप्न के विषय में बताते हुए निवेदन किया कि अब मेरे जाने का समय आ गया है। मेरी मृत्यु के उपरांत किसी प्रकार का दुख वियोग नही कीजियेगा। मैंने आजीवन आपके सुख, शांति और समृद्धि की कामना की है और यह गांव आदर्श गांव के लिये प्रसिद्ध है। मेरे जाने के बाद भी इसे इसी प्रकार आदर्श गांव बनाए रखियेगा। इतना कहकर वे सबसे विदा लेकर वापिस अपने कुटिया में चले गये। कुछ क्षणों बाद ही गांव वालों ने देखा कि एक चमकती हुयी रोशनी आकाश की ओर जा रही है। यह अदभुत दृश्य देखकर वे कुटिया के अंदर गये तो उन्हें कुटिया में स्वामी जी के पूजा स्थल पर उनका शरीर निश्चल अवस्था में आसन पर बैठा मिला। यह बात बहुत तेजी से चारों ओर फैल गयी और चारों ओर से लोग उनके अंतिम दर्शन के लिये आने लगे और वे सभी भारी मन से, नेत्रों में अश्रु लिये हुये उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित हुये। एक सन्यासी की आदर्शवादिता, कर्मठता और प्रभु भक्ति से वह आदर्श गांव अन्य लोगों के लिये भी प्रेरणा स्त्रोत बन गया।
परोपकार बांधवगढ़ के जंगल में एक शेर एवं एक बंदर की मित्रता की कथा बहुत प्रचलित है। ऐसा बतलाया जाता है कि वहाँ पर एक शेर शिकार करने के बाद उसे खा रहा था तभी एक बंदर धोखे से पेड से गिरकर उसके सामने आ गिरा। शेर ने उसकी पूंछ को पकड लिया। पेड पर बंदरिया भी बैठी हुई थी। बंदर की मौत को सामने देखकर वह करूण विलाप करने लगी। बंदर ने भी दुखी मन से एवं कातर दृष्टि से बंदरिया की ओर इस प्रकार देखा जैसे अंतिम बार उसे देख रहा हो। शेर को पता नही क्या सूझा उसने बंदर की पंूछ छोड दी और उसे भाग जाने दिया। बंदर वापिस पेड पर चढकर बंदरिया के पास पहुँच गया। दोनो बडे कृतज्ञ भाव से शेर की ओर देखते हुए मन ही मन उसे धन्यवाद देते हुए वहाँ से चले गए। एक दिन वह शेर अपने में मस्त विचरण कर रहा था। वह बंदर और वह बंदरिया भी पेड केे ऊपर बैठे हुए थे। शेर जिस दिशा में जा रहा था उसी दिशा में शिकारियों ने शिकार के लिए तार लगाए हुए थे। उन तारों मंे बिजली का करंट दौड रहा था। यह खतरा भांपकर बंदर और बंदरिया ने चिल्लाना शुरू कर दिया परंतु शेर की समझ में कुछ नही आया। यह देखकर बंदर और बंदरिया ने एक सूखी डाली तोडकर शेर से कुछ दूर उन तारों पर फंेकी। शॉर्ट सर्किट के कारण उस डाली में आग लग गई। शेर भी सावधान होकर तत्काल रूक गया। उसकी जान बच गई। सब कुछ समझकर उसने कृतज्ञ भाव से बंदर और बंदरिया को ओर देखा जैसे उनके प्रति आभार व्यक्त कर रहा हो। इसलिए कहते है कि परोपकार का फल जीवन में अवश्य मिलता है। शेर ने बंदर की जान छेाडी थी उसी के बदले स्वयं उसकी जान भी बंदर ने बचाकर उसके उपकार का बदला चुकाया।
स्वरोजगार मैने प्रतिदिन प्रातः उसे समाचार पत्र बेचते देखा है। वह अभावों का जीवन जीता था, परंतु फिर भी वह ईश्वर के प्रति असीम श्रद्धा व विश्वास रखता था। रात में शिक्षा प्राप्त करने के लिए मेरे निवास पर आता था और अध्ययन करता था। एक दिन वह अपनी कडी मेहनत से पढाई में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ और मुझसे इनाम में एक साइकिल प्राप्त की। अब वह पूरे चाल के कपडे प्रतिदिन साइकिल पर ले जाता था और धोबी से धुलवाकर शाम को उसे वापिस पहुँचाकर धन कमाता था। दो वर्षों के बाद इस जमा पूंजी से उसने वाशिंग मशीन खरीद ली और स्वयं कपडे धोने का काम करने लगा। आज वह एक ड्रायक्लीनिंग की दुकान का मालिक है। इसके साथ साथ उसने एक नया काम भी चालू किया, वह प्रतिदिन आवश्यकतानुसार चाल के घरों का दैनिक जरूरतों का सामान लाकर पहुँचाने लगा। उसका यह व्यापार भी ईश्वर कृपा से चल निकला। आज वह कार में आता जाता है। उसने एक मकान भी खरीद लिया एवं उसका नाम स्वरोजगार रखा। आज भी वह ईमानदार एवं स्वाभिमानी है, अभिमान और घमंड से बहुत दूर है। वह कई ड्रायक्लीनिंग मशीनों का मालिक है पर दीपावली के दिन आशीर्वाद लेने अपने सभी पुराने ग्राहकों के पास जाता है। उसका जीवन प्रेरणास्त्रोत है एवं स्वरोजगार के माध्यम से अपने को अमीर बनाने का एक जीता जागता उदाहरण है। देश में जनसंख्या की असीमित वृद्धि हो रही है। रोजगार के साधनों की अनुपलब्धता के कारण देश में बेरोजगारी बढ रही है। अब सरकार के पास भी इतने रोजगार और नौकरी उपलब्ध नही है जिससे तेजी से फैल रही बेरोजगारी को रोका जा सके। आज की परिस्थितियों में स्वरोजगार ही बेरोजगारी केा दूर करने का सशक्त माध्यम बन सकता है। यह इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
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