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Pragati Gupta

Pragati Gupta Matrubharti Verified

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(894)

संन्यास
- प्रगति गुप्ता
एक माँ की सुंदरतम कृति
होती है उसकी संतान
लगाती है जिसके
लालन- पालन में अथाह मेहनत
समर्पित कर देती है
जीवन के दिन और रात,
बगैर किसी विश्राम..

फिर अपनी अनुपम कृति से
तोड़ आसक्ति, भरने देती है
एक नई ऊंची उड़ान
नए नीड़
नए संग-साथ को थाम...

नही होता आसान,
अपनी सुंदरतम कृति को
सहर्ष उन्मुक्त छोड़ना,
यहीं कहीं से शुरू होता है
एक माँ का संन्यास की
पहली सीढ़ी की ओर बढ़ना...

छोड़ आसक्ति और मोह को
अपने कर्मों के
लेन-देन के गहरे उतरना...
कहीं न कहीं धैर्य धारण कर
उमड़ते भावों की सीमाओं को
यथार्थ की गाँठ से बाँधना...

फिर अपने प्रारब्ध के लिए
सचेत रहकर मौन रहना
और बहुत कुछ
अपने मौन में ही गुनना...

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नन्ही चिड़ी-सी माँ
- प्रगति गुप्ता

उसके घर में न
कोई दरवाज़ा है न खिड़कियाँ
सिर्फ़ खुला आकाश और
कुछ छाँव भरी पत्तियाँ...

नन्हों के जनमते ही
लेकर तिनकों का सहारा
उसने नीड़ को बना लिया
अपनी तपोभूमि-सा..

हर रोज़ आँधी-तूफानों से
जूझता उसका बसेरा,
फैलाकर परों को ढाँप लेती
बनाकर कवच कनात-सा..

देखकर नन्ही-सी चिड़ी को
अनायास ही याद आती मुझे माँ
और उसका अथाह ममत्व
जो फैला कर आँचल
मन ही मन में करती रही
असंख्य व्रत और अर्चना,
लेने को कष्ट स्वयं पर
ताउम्र बनती रही
सुरक्षा कवच-सा...

(दैनिक नवज्योति में
प्रकाशित)
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पूर्ण-विराम से पहले
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उम्र के अंतिम पड़ाव तक
जो प्रेम मौन चिरप्रतीक्षित रहा,
रूबरू जब भी हुआ यह,
सजल नयन मिलता रहा...
जितना गहरे हम मौन में उतरते गए
उतने ही कहे-अनकहे भाव
निःशब्द संग-संग चलते रहे ...
सुदूर कहीं से हमारा
सलामती की दुआएं पढ़ना
एक दूजे से नही छिपा था,
बहते अश्रुओं के धारों पर
बांध प्रेम का बांध कहीं गहरे तक
एक दूजे को हमने महसूसा था..
निमित्त प्रेम के अधीन आज
पुनः हम सामने खड़े थे,
देख आँखों के ढलके आंसू,
बांध न पाई अँखियाँ उस बांध को
जिस बांध पर हम दोनो खड़े थे..
'पूर्णविराम से पहले' हमारा पुनः मिलना
उस निमित्त अधीन चिरप्रतीक्षित
प्रेम के उपहार का हिस्सा था
जिसकी अनुभूतियों के छावं तले
शेष यात्रा को हमें
अब संग-संग तय करना था...
प्रगति गुप्ता

पूर्ण-विराम उपन्यास की बुक-मार्क कविता

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रूह
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दिल का एक हिस्सा
मन्नत के धागों से बंधा
रूहो का होता है...
सुनते है वहाँ कोई
बहुत दिल से जुङा रहता है...
दिखता नहीं वो कोना
ना ही वो रूह नजर आती है..
तभी तो ऐसे
रिश्तों को समझ पाना भी
आसां कहाँ होता है...
खामोश रूहें
वहीं सकूंन से गले मिला करती हैं..
कहने को तो कुछ नहीं
पर महसूस करने को
बहुत कुछ हुआ करता है..
दिल के उसी कोने मे --
रूहों का
आरामगाह हुआ करता है...
                प्रगति गुप्ता

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