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Pawan Shukla

Pawan Shukla

@pawankumarshukla9gma


"यामिनी"

रात थी
तरल अहसास सी
ठंड हवा जंगली सुगंध
को समाये
पत्थर से टकराती छिछली
नदी पर दौडती........
पहाड़ियाँ
काली रेखाओं-सी
क्षितिज पर उभरी
जैसे किसी पुराने चित्र की याद
अम्रितांश की शुभ्र
चादर ओढे
मैं था
एक पेड़ की जड़ में,
मिट्टी की गंध में घुला,
घास की नमी में लिपटा।
ऊपर,
चाँद था
ना पूरा, ना अधूरा,
बस वहाँ था।
शब्दहीन,
उस पतली धार में
खुद को निहारता......
चारों ओर
सन्नाटा फैला था,
लेकिन सन्नाटा नहीं था
वह बहती थी
नीचे, कहीं पास ही,
एक पतली धारा,
जिसकी ‘कल-कल’
किसी प्राचीन लोरी-सी
कानों में उतरती थी।
मैंने कुछ नहीं कहा,
उसने कुछ नहीं पूछा।
फिर भी
एक संवाद था
उस हवा का
उस सरसराते
लहराते जंगल का
शायद
यही होती है शांति
जब तुम प्रकृति में
ना दर्शक होते हो,
ना कथाकार—
बस एक बिंदु,
जो खो चुका है
हर दिशा में।

-पवन कुमार शुक्ल

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अंतराल
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लंबे अंतराल के बाद
जब तुम आई,
तो दरवाज़ा नहीं
समय खुला।

दीवारों ने पहचानने में
थोड़ा वक़्त लिया,
कमरे की हवा
अभी भी तुम्हारा इंतज़ार करती थी।

तुम आई,
पर वो हँसी
अब पहले जैसी नहीं थी —
शब्द कम, मौन अधिक था।

चाय उबल रही थी,
पर चूल्हे की आग
अब उतनी गर्म नहीं थी।

कुछ बदला नहीं,
फिर भी सब कुछ
बदल चुका था।

लंबे अंतराल के बाद
तुम आई हो —
या शायद
सिर्फ
तुम्हारी परछाईं।

-पवन कुमार शुक्ल

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"वो जो मेरे मौन में रहती है"

वो,
जो हर सुबह
किसी और की दुनिया सँवारने निकलती है,
और हर शाम
किसी और की थकान अपने भीतर समेट लेती है,
उसे मैं
हर दिन, हर पल
बिना मांगे, बिना कहे,
पूजता रहा हूँ।

वो,
जो मुझसे उम्र मेॅ आगे चली,
और मैं…
उसी दूरी में रहकर
उसकी परछाईं से दोस्ती करता रहा।

मैंने कभी उसके नाम को
अपने अधरों तक नहीं आने दिया,
बस अपने हृदय में
एक दीपक की तरह
जलाए रखा—
टिमटिमाता, शांत,
पर बुझा नहीं कभी।

वो नहीं जानती,
कि कोई है—
जो हर रोज़
उसकी खामोश उपस्थिति में
अपने भीतर कुछ गिरा देता है—
एक साँस, एक उम्मीद, एक गीत।
मैंने प्रेम नहीं माँगा,
बस उसकी उपस्थिति को
अपने जीवन की कविता बना लिया—
एक ऐसी कविता,
जो कभी उसके पास नहीं पहुँची,
पर हर शब्द उसी की साँसों से महकती है।

अगर कभी
ये शब्द उसके पाँव के पास गिरें—
तो वो समझ जाए
कि यह कोई प्रेम निवेदन नहीं,
बस एक आत्मा का प्रणाम है,
जो जन्मों से उसका है,
और जन्मों तक रहेगा—
मौन, मधुर, मूक…
पर अटल।

-पवन कुमार शुक्ल

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"आओ बैठें"

आओ बैठें—
थोड़ी देर
बिना कहे कुछ,
सिर्फ़ साँसों की आवाज़ में
बातें ढूँढें।

कुर्सियाँ वही हैं,
जिन पर पहले भी बैठे थे,
पर पीठ सीधी नहीं होती अब,
शायद दिल थोड़ा झुक गया है।

फोन साइलेंट रखो,
न दुनिया रुकेगी,
न ख़बरें थमेंगी।
पर यह पल—
हमारी नज़रों में
एक पूरी उम्र जैसा हो सकता है।

आओ बैठें—
जैसे पुराने पेड़ के नीचे
थकी हुई छाया बैठती है।
न हिसाब करें कल का,
न डरें आने वाले ऋतुओं से।

बस अभी—
तुम और मैं,
थोड़ी चुप्पी,
थोड़ा अपनापन
और एक अदृश्य समझौता
कि हम साथ हैं,
क्योंकि हम साथ होना चाहते हैं।

-पवन कुमार शुक्ल

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"गीता और कवि"

सूरज उगता है हर दिन,
बिना किसी इच्छा के।
गीता कहती है —
"कर्म कर, फल की कामना से रहित।"
कवि देखता है वही सूर्य,
और लिखता है —
“उगते सूरज में आशा की अग्नि है।”

पक्षी उड़ते हैं दिशा-हीन नहीं,
वे जानते हैं वसंत का मार्ग।
प्रकृति उन्हें कुछ नहीं सिखाती,
फिर भी वे चूकते नहीं।
गीता मौन में कहती है —
"स्वधर्म का अनुसरण करो।"
कवि वही उड़ान देख
पूछ बैठता है —
"क्या यह मुक्ति है, या आदत?"

वृक्ष छाँव देते हैं,
बिना पहचान पूछे।
गीता उसमें देखती है
निष्काम सेवा।
कवि उसकी जड़ों की ओर देखता है,
जो अंधकार में फैली हैं —
और लिखता है:
"जो दिखता नहीं, वही सबसे ज़्यादा थामे है।"

नदी बहती है,
कभी शांत, कभी विकराल।
गीता कहे:
"यह प्रवाह ही जीवन है — रुकना मृत्यु।"
कवि पूछे:
"क्या नदी को भी कभी थकान होती है?"

प्रकृति दोनों को सुनती है —
मुस्कराकर,
जैसे माँ दो बच्चों की बात सुन रही हो
— एक संन्यासी,
— एक कलाकार।

गीता का सत्य स्थिर है,
नदी की तरह प्रवाह में भी निश्चल।
कवि का सत्य बदलता है —
हर फूल, हर चाँदनी में नया रूप धरता।

और फिर भी —
दोनों जब चुप होते हैं,
प्रकृति कहती है:
"अब तुम एक ही भाषा बोल रहे-मौन.

-.पवन कुमार शुक्ल

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- : फुहार :-

मदमस्त घन, मदमस्त वन
मदमस्त है कुलकामिनी
मोर संग ज्यों मोरनी
मदमस्त द्रृग मैं बलिहारी
सघन केस में गुंथी वारि
आवाज मीठे मोर स्वर सा
मन तो हर ले मोहिनी
वह मोर सी न्रृत्यांगनी.
कोयले प्रतिध्वनि सुनाये
छेंड़ती जब रागिनी
मदमस्त संग मन में उमंग
मदहोश कर मन स्वामिनी
ऐ स्वप्न सी शशि भामिनि
नील नभ की चांदनी...

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घर से थोड़ी दूर एक मंदिर है
एक पगडंडी है
झाड़ में पंछी हैं
हवा की सरसराहट है
शुकून है
शीतल छांव है
जी हां मेरा गांव है.

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......जिज्ञासु यात्री........

ना आत्ममुग्ध ,ना मंत्रमुग्ध,
मै जिज्ञासु युक्त यात्री जग के
उन्मुक्त धरा, उन्मुक्त व्योम,
उन्मुक्त सभी बंधन भव के,
ना शूरवीर, ना नवनियुक्त,
ना अविरल गुण प्रवाहमय है
उन्माद मुक्त ,भय से विमुक्त,
आस्था मेरा शिवाय में है
ना दुर्गति अति, ना प्रेम लाप,
ना कुंठा शेष प्राण में है
ना आभूषित, ना अति विशिष्ट,
ना ही निष्प्राण तन है

-: पवन कुमार शुक्ला:-

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......द्वंद गीत.........



आकाश के विस्तार में,

जाला सा बुना क्युं है

गर्म हवा में रेत कण,

ठहरा हुआ सा क्यूं है

कांपता सा असमान,

उलझा हुआ सा क्यूं है

दोपहर की धूप में

धुंआ सा क्यूं है

पीले पत्तों के ढेर में

बे अर्थ जिंदगी सा

नींद में डूबा सा सूरज

बुझा सा क्यूं है ...

जीवन के उन्माद का......

अवसान सा क्यूं है

महाभारत की शाम का

सूनसान सा क्यूं है

अस्तित्व ढुढने का

द्वंद गान सा क्यूं है

भ्रम भरे जगत में

अनुसन्धान सा क्यूं है

सभ्य मानव त्रस्त क्यों

प्रोग्राम है रोबोट का ?

कोमल भाव..आधुनिक

विज्ञान सा क्यूं है

भोर की रक्तिम- रश्मि में

चंहचंहाते उत्सवों का

युद्ध में फटते ड्रोन का

उडान सा क्यूं है...

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पवन कुमार शुक्ल

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