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Manvika Shveta

Manvika Shveta

@manvikashveta451717


मेरे तुम,

कहां है वो सुगंध
उन फूलों की?
कहां है वो महक
उन बीते लम्हों की?

क्या तुम उन्हें अपने साथ ले गए हो?
फिर इन पत्तों में सन्नाटा क्यों है,
इन झरनों की कलकल भी
आज मौन-सी क्यों लगती है?

उन पलों की यादें
अब भी ठहरी हैं मेरे आस-पास,
पर उनमें वो चमक नहीं —
जो तुम्हारी मौजूदगी से थी।

मेरे हो न तुम?
फिर क्यों नहीं हो मेरे?
पास न सही... पर दूर भी
क्यों इतने अपने लगते हो?

जब मैंने पूछा था —
“क्या तुम मेरे हो?”
तब तुम्हारी मुस्कान ही जवाब थी,
जिसे मैंने सच मान लिया था।

पर अब सोचती हूँ...
क्या वो मुस्कान सच थी,
या बस एक खामोश विदाई?

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तुम कौन हो,
कहाँ से आए हो?
मैंने तो कभी माँगा नहीं तुम्हें,
कभी चाहा भी नहीं...

फिर क्यों बार-बार
लौट आते हो?
क्या हो तुम?
ऐसे क्यों हो?

जब भी मैं तुम्हें ठुकरा देता हूँ,
तब भी मुस्कुरा क्यों जाते हो?
क्या मुझसे डर नहीं लगता?
गुस्सा नहीं आता कभी?
मुझे यूँ क्यों सताते हो?

जाओ न तुम भी,
सबकी तरह...
छोड़ दो मुझे तन्हा,
मैं तुम्हें संभाल नहीं सकता।

जाओ तुम...
अब भी हँस रहे हो?
शायद अब समझ गया हूँ—
तुम कौन हो मेरे।

तुम तो मुझमें ही हो,
मेरे साए हो,
मेरे अपने हो।

ठीक है फिर,
अँधेरे में भी मत जाना मुझे छोड़कर,
वरना मैं भूल जाऊँगा...
कि तुम कौन हो मेरे।

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मैं बहुत खुश हूँ — पर वजह मत पूछना।
तुम कहोगे, "क्यों हो?"
बस, यही तो नहीं बताना।
मैं मुस्कुराऊँगा तुम्हें ही याद करके।
फिर कैसे कहूँगा कि
इतना खुश हूँ मैं — तुम्हारी यादों के सहारे ही तो हूँ।

अब जैसा भी हूँ,
हुआ तो तुम्हारे ही कारण है;
फिर कैसे कह दूँ तुमसे ही कि —
तुम क्या हो मेरे...?
अजीब कश्मकश में फँसा हुआ हूँ,
फिर भी तुम्हारी यादों में बसा हुआ हूँ।
एतबार है तुम पर कि तुम कभी नहीं होंगे मेरे,
पर तुम्हारी यादों को
अपने तकिए तले रखे हुआ हूँ।
बहुत खुश हूँ मैं,
बस पूछना मत
क्यों हूँ मैं....

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दुनिया का दस्तूर है,
जब-जब जो भी हुआ है,
उसमें केवल उसी की रज़ा है,
जिसने हमें गढ़ा है।

न किसी से बैर है,
न किसी की दुआ है,
सब कुछ उसी का किया-धरा है।

शायद इसलिए कहते हैं—
अचानक कुछ नहीं होता,
सब उसी की रज़ा है।

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साथ चलो कुछ दूर,
कि सफ़र लंबा है,
यह मालूम नहीं।

मैं चलूँगा अकेला,
पर शर्त यह है—
कि उस मोड़ तक,
जहाँ होंगे जुदा
हम–तुम,

साथ चलो कुछ दूर।

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जब दिल में दर्द है,
सीने में चुभन है,
फिर भी ज़ुबां
क्यों खामोश है?

- Manvika Shveta

ग़म इस बात का नहीं,
कि वो मेरे पास नहीं हैं...
ग़म तो उनके साथ होने से था।

अब तो मैं एक आज़ाद परिंदा हूँ,
जिस डाल पर चाहूँ,
उस पर बैठ जाऊँ।

फिर भी तलाश उसी सुकून की कर रहा हूँ,
जो उनकी क़रीबी से था।

- Manvika Shveta

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तुम कौन हो मेरे...
मैं क्या कहूँ तुमसे?
क्या सब कह दूँ तुम्हें?
लेकिन... उसका हक तो दो मुझे।

तुमसे शिकवा करूँ —
इतना हक तो दो।
क्या ग़िला करूँ मैं तुम्हें,
जब इतना हक ही नहीं?

तो क्यों ख़फ़ा हो जाऊँ?
बात तो दो...
तुम कौन हो मेरे?
तुम कौन हो...?

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अगर मैं खामोश हूँ,
तो उसे मेरी कमजोरी मत समझना।
कुछ यूँ मान लेना–
कि बस थोड़ा-सा रूठ गया हूँ।

तुमसे ही नहीं,
बल्कि अपने आप से खफ़ा हो गया हूँ।
कुछ माँगूँगा नहीं तुमसे,
बस एक नज़र भर देख लूँगा।

अगर तुम मनाने आओगे,
तो... मान भी जाऊँगा।
बस इतना याद रखना,
तुम्हारा इंतजार रहेगा मुझे...

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कुछ रास्तों पर हम इसलिए नहीं चलना चाहते,
क्योंकि उनकी कोई मंज़िल नहीं होती।
बल्कि इसलिए चलना चाहते हैं,
क्योंकि उन रास्तों पर चलकर
हमें सफ़र का असली मतलब समझ आता है।

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