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पत्तों के मंच पर, बैठी ये मासूम शब़नम करना चाह रही हैं नृत्य, चाह रही झूमना, पवन की थाप पर.. नहीं जानती शायद कि आकर मार्तण्ड, मिटा देगा इसके अस्तित्व को.. और यह सौंदर्य इनका वाष्पित हो , लुप्त हो जाएगा ब्रह्माण्ड में. पाने को फिर एक नया जन्म..🐣 विचित्र है यह प्रकृति🌿🍃 फिर यह रूप दिखे ना दिखे.. कर लो आत्मसात इस सौंदर्य को अभी . जी लो जी भर बस तुम भी वर्तमान में ही है क्षण भंगुर इसी भाँति मानव जीवन भी. ----मंजु महिमा
जन्माष्टमी है आत्मा का जागरण प्रेम उद्भव. © मंजु महिमा
# मैंने भी जलाई होली. सोचा इस बार , मैं भी जलाऊँ होली मैंने झांका हृदय में अपने,, देखा एक बड़ा सा, स्तम्भ था अहं का, उसे घसीट कर लाई, और गाड़ दिया, बीच में, फिर गई, देखा, कुछ ईर्ष्या,द्वैष के ‘उपले’ पड़े हैं, ले आई उन्हें ढोकर, और अहं के लकड़ॆ के, आसपास जमा दिया। फिर टटोला मन को, लालच के मीठे-मीठे बताशे, बिखरे हुए थे इधर-उधर , उन्हें किया एकत्र और बना ली उनकी माला उसे भी लगा दिया, होली के डंडे पर । एक डिबिया मिली , जिसमें रखी थीं , कई तीलियाँ क्रोध की , उन्हें ले आई और , रगड़ कर उन्हें कर दी प्रज्जवलित अग्नि धूँ-धूँ धूँ..धूँ जलने लगी होली । मन में छुपी कुछ धारणाओं के नारियल को भी किया समर्पित । भावनाओं के शीतल जल से परिक्रमा कर, देखती रही, उठती चिनगारियों को। अपने विकारों की अग्नि में, जल कर भी जब प्रह्लाद की भाँति सत्य का नारियल बाहर निकल आया तो, खेलने का मन हुआ होली। अब लोगों के सब तरह के रंग देखकर भी, मन चहकता रहता है। लोगों की तीखी और पैनी पिचकारियाँ झेलकर भी मन गुदगुदाता रहता है। अब होली बन गई है एक उत्सव मन का भी। © मंजु महिमा भटनागर
होलिका दहन सोचा इस बार , मैं भी जलाऊँ होली मैंने झांका हृदय में अपने,, देखा एक बड़ा सा, स्तम्भ था अहं का, उसे घसीट कर लाई, और गाड़ दिया, बीच में, फिर गई, देखा, कुछ ईर्ष्या,द्वैष के ‘उपले’ पड़े हैं, ले आई उन्हें ढोकर, और अहं के लकड़ॆ के, आसपास जमा दिया। फिर टटोला मन को, लालच के मीठे-मीठे बताशे, बिखरे हुए थे इधर-उधर , उन्हें किया एकत्र और बना ली उनकी माला उसे भी लगा दिया, होली के डंडे पर । एक डिबिया मिली , जिसमें रखी थीं , कई तीलियाँ क्रोध की , उन्हें ले आई और , रगड़ कर उन्हें कर दी प्रज्जवलित अग्नि धूँ-धूँ धूँ..धूँ जलने लगी होली । मन में छुपी कुछ धारणाओं के नारियल को भी किया समर्पित । भावनाओं के शीतल जल से परिक्रमा कर, देखती रही, उठती चिनगारियों को। अपने विकारों की अग्नि में, जल कर भी जब प्रह्लाद की भाँति सत्य का नारियल बाहर निकल आया तो, खेलने का मन हुआ होली। अब लोगों के सब तरह के रंग देखकर भी, मन चहकता रहता है। लोगों की तीखी और पैनी पिचकारियाँ झेलकर भी मन गुदगुदाता रहता है। अब होली बन गई है एक उत्सव मन का भी। © मंजु महिमा भटनागर
नव वर्ष: नवोदय सुत मेरी माँ के पोर-पोर में पीर है, दर्द के दरिया में डूबी वह नयनों में नीर है. मैंने जब कहा उससे, माँ! देख नया वर्ष आया है, दे रहा दस्तक द्वार पर, आहत स्वर में वह बोली- पूछ उससे क्या लेकर आया है? मेरे लिए फिर पीड़ा तो नहीं लाया है? वह बोला- माँ! मैं लेकर आया हूँ नवोदय...एक नई किरण आशा की, जगाएगी जो जिजीवषा उन मुरझाये हृदयों में, आक्रान्त हैं जो उस कोविड-19 और ओमीक्रोन से, छीन लिया है जिसने तेरे अपनों को, कर दिया है कैद सबको घरों में, छीन लिया है जिसने बच्चों से स्कूल, भयाक्रांत कर छीन लिया है जिसने रोजगार मज़दूरों से, कारीगरों से, डाल दिया है सबके जीवन को संकट में जिसने. माँ! मैं लेकर आया हूँ एक ऐसा टीका, जो लगाऊंगा जन-जन को, करूंगा शंखनाद जागरण का, और भगाऊँगा इसे सदा-सदा के लिए बचाऊँगा तेरे सुतों को, नहीं करने दूंगा अब इन्हें पर्यावरण को अशुद्ध. हर लूंगा तेरी हर पीर पौंछ ले तू नयनों का नीर. आश्वस्त हो माँ बोली- अच्छा है तू आ गया, समय से ले आया मेरी व्याधि की औषधि फूंक दे बेटा! यह जागरण का शंख जन जन जागे मेरी यह पीर भागे. मैं आहत हूँ, पर अब आश्वस्त हूँ ले आएगा तू जाग्रति, आ जाएगी जिससे स्वास्थ्य-क्रान्ति/ ॐ शांति ॐ शांति.. नववर्ष का करें स्वागत सम्मानीय है हर आगत. ©- मंजु महिमा-
🙏🏻सुप्रभात.. कुछ शरद ऋतु के हायकु आपको नज़र हैं-- हाइकु--कोहरा, धुंध 1- घना कोहरा कोख में सुरक्षित प्रकाश पिंड. 2- ओढ़े शरद कोहरे का कंबल गर्माई धरा. 3- धुंधली धरा कुहासे का मफ़लर, मार्तंड-मुख. 4- घना कुहासा, बर्फीले अहसास, कोई ना पास. 4- बाँध गले में, मफ़लर धुंध का, सोया सूरज. 5- दिल उदास छाया कुहासा मन रवि की आस. 6- क्यों छुपे हो? धुंध के पल्लू में , ओ! दिवाकर ©मंजु महिमा
औरत : एक बोनसाई -- © मंजु महिमा  जड़े तराश तराश कर बोनसाई तो अब बनाए जाने लगे हैं, पर औरत तो सदियों पहले ही बोनसाई बना दी गई थी. वह अपने गृहस्थी के गमले में उग तो सकती है, पर पुरुष से ऊँची उठ नहीं सकती, वह फल तो दे तो सकती है, पर उनकी सुरभि फैला नहीं सकती थी, वह बन कर रह गई बस घर की सजावट मात्र. जिसे सुविधानुसार जब चाहे तब जहाँ चाहे वहाँ बिठा दिया जाता था। हो चुका बहुत, पर अब ना बनेगी वह बोनसाई, उसे उगना है विशाल वृक्ष बनकर, बनना है नीड़ पक्षियों का, देने हैं मीठे रसीले फल, फैलानी है सुगंध उनकी चहुँ दिशाओं में, देनी है घनी छांव, तप्त धरा को। उसे उठना है ऊपर, करनी हैं बातें आसमां से उसे भी , नहीं बनकर रहना है बोनसाई उसे अब। नहीं बनकर रहना है बोनसाई उसे अब । ©मंजु महिमा भटनागर
हथेलियों में सूरज- आओ उगा लें , हथेलियों में अपनी, एक नन्हा सूरज, जो जला सके, उन लोलुप वासना-रत निगाहों को, जो ताकती रहती है, अबोध अहिल्याओं को.| कर सके जो भस्म , उन बलात्कारियों को, जो छिपे हैं आज भी, सबकी निगाहों से, और गरज रहे हैं, शेर बन कर.| आओ उगा लें , हथेलियों में अपनी, एक नन्हा सूरज, जिसकी किरणें समा जाएँ, कलम में हमारी , उधेड़ दे जो बखिए, सिले हुए राज़ोंं के.| हो जाएँ जिनसे रोशन, उनके अँधेरे के गुनाह, जो पाएं हैं, पनाह सत्ता की. कर भस्म उनके आशियानों को, कर दें उन्हें, भटकने को मज़बूर | . आओ उगा लें , हथेलियों में अपनी, एक नन्हा सूरज, कर दें भस्म उन, तथाकथित नेताओं को, जो नेता कम पिछलग्गू अधिक आते हैं नज़र, जो छिपाएं हैं सफेदी में, अपने कर्मों की कालिख, और ढा रहे हैं जनता पर कहर.| नोटों के नशे में धुत्त, जिनकी कलम हस्ताक्षर करने के लिए तुलती है करोड़ों में. जिनके कालीन के तले, बिछे होते हैं, अरबों-खरबों रुपए. भविष्य को कर अपने सुरक्षित, सो रहे हैं जो बेखबर| आओ उगा लें , हथेलियों में अपनी, एक नन्हा सूरज, कर दें भस्म, तथाकथित नेताओं को, जो नेता कम पिछलग्गू अधिक आते हैं नज़र, जो छिपाएं हैं सफेदी में, अपने कर्मों की कालिख, और ढा रहे हैं जनता पर कहर.| नोटों के नशे में धुत्त, जिनकी कलम हस्ताक्षर करने के लिए तुलती है करोड़ों में. जिनके कालीन के तले, बिछे होते हैं, अरबों-खरबों रुपए. भविष्य को कर अपने सुरक्षित, सो रहे हैं जो बेखबर| आओ उगा लें , हथेलियों में अपनी, एक नन्हा सूरज, कर दें भस्म, उन देशद्रोहियों को, जो देश में आज भी, घूम रहे हैं ज़िंदा, कर रहे आतंकित, जनता को पहन मुखौटा.| आओ उगा लें , हथेलियों में अपनी, एक नन्हा सूरज, जो बनकर आए एक आशा की किरण उन हृदयों में जो आज बुझ चुके हैं, खो बैठे हैं अपनी आस्था सत्ता के प्रति जो लाए एक स्वर्णिम प्रभात, उन चंद इंसानों के लिए, जो आज भी सत्य के साए में ईमानदारी और विश्वास को लपेटे गठरी बने बैठे हैं, अपने घरौंदे में.| नहीं खौफ़ रखना तनिक अपनी हथेलियाँ जलने का, यह जलन बहुत कम होगी ‘जीते जी जलने’ से तो राहत ही मिलेगी तब, कर सकेंगे जब कुछ तो दिशाहीन, इस भटकते समाज को रोशनी से रु-बरू करवाकर.| आओ उगा लें , हथेलियों में अपनी, एक नन्हा सूरज| ---©--मंजु महिमा
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