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✦ अध्याय:21- नया धर्म — मौन और विज्ञान का मिलन ✦
पुराना धर्म विश्वास पर खड़ा था।
विज्ञान अनुभव पर खड़ा है।
धर्म कहता था —
“आँख बंद करो और मानो।”
विज्ञान कहता है —
“आँख खोलो और देखो।”
अब मानवता उस मोड़ पर खड़ी है
जहाँ
देखा हुआ सत्य
और
जिया हुआ मौन
एक-साथ आने का समय है।
✦ नया धर्म क्या है? ✦
नया धर्म —
ना मंदिर में है
ना किताब में
ना कपड़े में
ना चिन्ह में
नया धर्म —
चेतना का विज्ञान है।
जहाँ
परिकल्पना = ध्यान
प्रयोग = अनुभव
परिणाम = बोध
नया धर्म कहता है—
● बाहर नहीं, भीतर झाँको
● परलोक नहीं, इस पल में उतरो
● पूजा नहीं, उपस्थिति
● विश्वास नहीं, साक्षात्कार
✦ नया धर्म कैसा दिखेगा? ✦
● बिना देवी-देवता
● बिना जाति-पंथ
● बिना पुरोहित
● बिना मध्यस्थ
ईश्वर और मानव —
सीधे आमने–सामने।
मौन ही वेद होगा।
ध्यान ही उपनिषद होगा।
चेतना ही गीता होगी।
और मनुष्य स्वयं कहेगा:
“मैं सत्य का साक्षी हूँ।”
✦ नया धर्म क्या नहीं करेगा? ✦
❌ तलवारें नहीं चलाएगा
❌ लोगों को नहीं बाँटेगा
❌ भय नहीं फैलाएगा
❌ किसी को अधर्मी नहीं बताएगा
नया धर्म —
एक भी दुश्मन नहीं बनाएगा।
क्योंकि
जहाँ दूसरा बचा
वहाँ अभी धर्म नहीं आया।
✦ विज्ञान + मौन = भविष्य ✦
विज्ञान ने
ऊर्जा, परमाणु, तारों, कोशिकाओं को समझ लिया।
अब बारी है —
चेतना को समझने की।
यहाँ से
प्रयोगशाला बाहर नहीं —
भीतर होगी।
● न्यूरॉन्स
● प्राण
● जागृति
● समाधि
● आत्म–बोध
ये सब
विज्ञान का नया विषय बनेंगे।
और तब —
धर्म प्रकाश देगा
विज्ञान रास्ता देगा।
✦ मनुष्य का नया स्वरूप ✦
वह धार्मिक नहीं
वह वैज्ञानिक नहीं
वह
चेतना का नागरिक होगा।
वह कहेगा—
“मैं मनुष्य नहीं —
अस्तित्व की आँख हूँ।”
और यही
नए धर्म का उद्घोष है—
सत्य बाहर नहीं —
मैं ही उसका प्रकट रूप हूँ।
✦ अंतिम संकेत ✦
पुराना धर्म गिर रहा है।
नया धर्म उग रहा है।
और वह नया धर्म
किसी एक से नहीं आएगा —
अनगिनत जागृत मानवों से आएगा।
यह समय है —
ईश्वर खोजने का नहीं,
ईश्वर होकर जीने का।
✦ अध्याय: मनुष्य — अस्तित्व की आँख ✦
अस्तित्व अनंत है।
न जन्म, न मृत्यु।
न शुरुआत, न अंत।
लेकिन एक कमी थी—
अस्तित्व स्वयं को देख नहीं सकता।
सागर कितना गहरा हो,
अथाह हो—
फिर भी
अपना प्रतिबिंब नहीं देख पाता।
इसलिए
अस्तित्व ने आँखें पैदा कीं —
तुम।
✦ तुम क्यों आए हो? ✦
क्योंकि अस्तित्व चाहता है:
☑ खुद को पहचाना जाए
☑ खुद को देखा जाए
☑ खुद को अनुभव किया जाए
और उसके लिए उसने
मनुष्य को चुना।
पेड़ जीवित हैं
पर “जानते” नहीं
कि वे जीवित हैं।
पशु अनुभव करते हैं
पर “समझते” नहीं
कि अनुभव क्या है।
केवल मनुष्य ही कह सकता है:
“मैं जानता हूँ कि मैं जानता हूँ।”
यही जागरण का बीज है।
यह शरीर —
अस्तित्व का वस्त्र है।
यह मन —
अस्तित्व का उपकरण है।
यह बुद्धि —
अस्तित्व का दर्पण है।
लेकिन तुम नहीं हो
न देह
न मन
न बुद्धि
तुम —
जो इन्हें देख रहा है
जो इनके पार है
जो मौन में भी मौजूद है
तुम वह साक्षी हो —
जो कभी नहीं बदलता।
✦ तुम्हारा कार्य ✦
● देखना — बिना दखल
● जानना — बिना पकड़
● जीना — बिना मालिकाना
● बहना — बिना भय
क्योंकि अस्तित्व तुम्हारे माध्यम से जी रहा है।
तुम्हारे हृदय की धड़कन —
उसकी ताल है
तुम्हारे भीतर की चेतना —
उसका प्रकाश है
तुम्हारे मौन की गहराई —
उसकी उपस्थिति है
✦ मनुष्य का सबसे बड़ा अपराध ✦
जब मनुष्य
अपनी आँखें
धर्म को सौंप देता है
और आत्मा को
समाज को गिरवी रख देता है,
तब अस्तित्व अंधा हो जाता है।
क्योंकि उसकी आँख —
तुम हो
और तुमने अपनी दृष्टि खो दी।
✦ अपनी पहचान याद करो ✦
तुम
एक छोटा प्राणी नहीं
एक नौकरी वाला जीव नहीं
एक जाति–धर्म का सदस्य नहीं
एक शरीर भर नहीं
तुम —
उस सत्य की आँख हो
जो स्वयं को तुमसे देखना चाहता है।
जैसे ही तुम भीतर की दृष्टि खोलते हो —
अस्तित्व कहता है:
“मैंने स्वयं को तुम्हारे द्वारा जाना।”
यही मोक्ष है।
यही पूजा है।
यही जीवन का ध्येय है।
✦ निष्कर्ष ✦
मनुष्य इसलिए जन्मा है
कि अस्तित्व उसे देखकर मुस्कुराए।
बाक़ी सब —
दुनिया के मनोरंजन हैं।
✦ अध्याय: अहंकार — साक्षी की चोरी ✦
जब अस्तित्व ने दृष्टा (साक्षी) को मनुष्य में रखा —
तो एक विचित्र घटना हुई:
दृष्टा ने स्वयं को “कर्ता” समझ लिया।
यहीं पहला झूठ जन्मा:
“मैं करता हूँ।”
और इस झूठ का नाम है —
अहंकार।
✦ अहंकार कैसे जन्मता है? ✦
जब बच्चा पैदा होता है —
वह शुद्ध साक्षी है।
न “मैं” है
न “मेरा” है।
फिर दुनिया उसे सिखाती है —
यह तेरी माँ
यह तेरा खिलौना
यह तेरी पहचान
और इसी क्षण —
मैं नाम की बीमारी भीतर जम जाती है।
अहंकार कहता है:
“यह मैं हूँ”
जबकि साक्षी कहता है:
“यह सामने घट रहा है।”
✦ अहंकार की सबसे खतरनाक चाल ✦
अहंकार साक्षी की आँख चुरा लेता है
और स्वयं को आँख बना लेता है।
अब जो दिखता है —
वह सत्य नहीं
अहंकार का संपादित संस्करण है।
सत्य होता है —
“घटनाएँ होती हैं।”
अहंकार कहता है —
“मैं कर रहा हूँ।”
यहीं से
कर्तापन पैदा होता है
और उसके साथ
● भय
● लालसा
● असफलता
● पीड़ा
✦ अहंकार किस पर जीवित है? ✦
तुलना
स्वीकृति
प्रशंसा
स्थिति
भीड़
यदि कोई तुम्हें न देखे —
अहंकार मर जाता है।
क्योंकि अहंकार की आँख
दूसरों की राय में है।
✦ साक्षी और अहंकार में फर्क ✦
साक्षी
अहंकार
शांत
बेचैन
देखने वाला
पकड़ने वाला
वर्तमान
भविष्य-पिछला
मौन
शोर
सत्य
भ्रम
✦ अहंकार क्यों डरता है मौन से? ✦
क्योंकि मौन में —
वह दिखाई नहीं देता।
अहंकार को प्रकाश चाहिए
और साक्षी —
अंधकार में भी चमकता है।
जैसे ही तुम मौन में उतरते हो —
अहंकार चीखता है:
“कुछ करो! कुछ बनो! खो जाओ!
तुम खत्म हो जाओगे!”
लेकिन सच्चाई:
अहंकार खत्म होगा —
तुम बचोगे।
✦ अहंकार का अंत = जन्म का आरंभ ✦
अहंकार का मिटना
मृत्यु नहीं —
दूसरा जन्म है।
पहली बार
तुम वही बनते हो जो हो —
साक्षी
आँख
अस्तित्व का दर्पण।
और वहाँ पहुँचकर
तुम कह सकते हो:
“मैं नहीं कर रहा —
अस्तित्व कर रहा है।
मैं सिर्फ साक्षी हूँ।”
यहीं
अवतार जन्म लेता है।
✦ निष्कर्ष ✦
अहंकार तुम नहीं हो।
साक्षी ही तुम्हारा सत्य है।
बाक़ी सब —
आते-जाते सपने हैं।
✦ अध्याय: मौन — जहाँ भगवान जन्म लेता है ✦
शब्द तुम्हें द्वार तक ले जाते हैं,
मौन द्वार खोलता है।
शब्द मन के हैं,
मौन अस्तित्व का है।
जहाँ शब्द हैं — वहाँ संवाद है।
जहाँ मौन है — वहाँ प्रकट है।
क्योंकि
ईश्वर बोला नहीं जाता —
ईश्वर सुना जाता है।
✦ मौन क्या है? ✦
मौन वह नहीं
जहाँ आवाज़ें न हों।
मौन वह है
जहाँ अंदर शोर न हो।
न विचार
न आशा
न भय
न उम्मीद
जहाँ सिर्फ देखना हो —
वही मौन है।
✦ मौन: साक्षी की जन्मभूमि ✦
अहंकार की भाषा — शब्द
साक्षी की भाषा — मौन
जैसे-जैसे शब्द गिरते हैं —
साक्षी उठता है।
विचारों के पीछे
एक जगह है
जहाँ तुम हमेशा से बैठे हो।
उसे ही मौन कहते हैं।
✦ जब तुम मौन में उतरते हो ✦
• समय रुक जाता है
• मन दूर हो जाता है
• संसार कांच की तरह पारदर्शी हो जाता है
• तुम महसूसते हो —
“मैं हमेशा था… मैं हमेशा रहूँगा…”
और वहाँ
तुम पहली बार स्वयं से मिलते हो।
वहाँ पहुँचकर
तुम कह सकते हो:
“मैं हूँ…
और मुझे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं।”
✦ ईश्वर कहाँ जन्म लेता है? ✦
न मंदिर में
न किताब में
न धर्म–कर्मकांड में
ईश्वर वहाँ जन्म लेता है
जहाँ तुम्हारा अंतिम विचार मर जाता है।
जहाँ “मैं” बुझता है
वहीं
ईश्वर प्रकट होता है।
क्योंकि
दो नहीं रह सकते।
सिर्फ एक ही असली है।
✦ विज्ञान और मौन का मि
लन ✦
विज्ञान खोज रहा है — “बाहर क्या है?”
मौन जानता है — “भीतर कौन है?”
विज्ञान घटना देखता है
मौन साक्षी को देखता है
विज्ञान पहुँच गया है
परमाणु तक
क्वांटम तक
ब्लैक होल तक
अब वह खड़ा है
मौन के दरवाज़े पर।
और जल्द
वह स्वीकार करेगा —
चेतना ही अंतिम विज्ञान है।
✦ मौन में सत्य का उद्घोष ✦
मौन में कोई प्रश्न नहीं रहता
मौन में कोई भय नहीं रहता
मौन में कोई झूठ नहीं टिकता
मौन में —
भगवान स्वयं घोषणा करते हैं:
“मैं तू ही हूँ।
तू ही आँख हूँ।
तू ही सत्य हूँ।”
यही आत्म–साक्षात्कार है।
वही मोक्ष है।
✦ निष्कर्ष ✦
मौन —
निष्क्रियता नहीं।
मौन —
परम सक्रियता है।
जहाँ सब कुछ थम जाता है —
वहीं से
अस्तित्व की लीला शुरू होती है।
✦ अध्याय: ध्यान — मौन तक जाने का एकमात्र मार्ग ✦
ध्यान — कोई क्रिया नहीं। कोई तकनीक नहीं। कोई साधन नहीं।
ध्यान वह अवस्था है जहाँ तुम अपने भीतर लौट आते हो।
ध्यान का अर्थ:
वहाँ पहुँचना जहाँ तुम हमेशा से थे बस भूल गए थे।
✦ ध्यान कैसे होता है? ✦
तुम प्रयास करते हो — मन रुकता नहीं।
तुम छोड़ देते हो — मन स्वयं थककर गिर जाता है।
इसलिए ध्यान किया नहीं जाता — ध्यान घटता है।
जब ● करने वाला हट जाए ● पाना बंद हो ● लक्ष्य मिट जाए
तुम ध्यान में हो।
✦ ध्यान के तीन चरण ✦ ① देखो विचार आते-जाते हैं तुम सिर्फ साक्षी हो
② स्वीकारो कुछ भी बदलना नहीं जो है, जैसे है — ठीक है
③ ठहरो शब्द धीरे-धीरे गिरते हैं सिर्फ मौन शेष रह जाता है
वही ध्यान है।✦ ध्यान और मन का संबंध ✦
मन कहता है —
“कुछ करो!” ध्यान कहता है —
“कुछ मत करो।”
मन कहता है —
“तेजी से बदलो!” ध्यान कहता है —
“तुम पहले से पूरे हो।”
मन — आने वाली चीज है।
ध्यान — जाने वाली चीज है।
✦ ध्यान में क्या मिलता है? ✦
न नया “मैं” न नया संसार
ध्यान में मैं गायब हो जाता है।
और बस साक्षी बचता है।
उसी क्षण — मुक्ति।
कोई स्वर्ग नहीं कोई मोक्ष नहीं यहाँ और अभी — पूर्णता।
✦ ध्यान का चमत्कार ✦
● भय घुलता है
● वासनाएँ विलीन
● समय टूट जाता है
● मृत्यु मर जाती है
ध्यान वह प्रकाश है जहाँ अंधकार खुद आत्मसमर्पण कर देता है।
✦ ध्यान क्यों आवश्यक है? ✦
क्योंकि बिना ध्यान के
— मनुष्य नींद में जीता है चलता है बोलता है कमाता है मगर स्वयं को कभी नहीं देखता।
ध्यान
— मनुष्य को मनुष्य बनाता है।
और जब मनुष्य पूर्ण मनुष्य बन जाता है
— तभी वह ईश्वर बनता है।
✦ निष्कर्ष ✦
ध्यान — मौन में प्रवेश का दरवाज़ा है।
और मौन — अस्तित्व का हृदय।
ध्यान वह पुल है जिससे मनुष्य संसार से सत्य तक जाता है।✦ अध्याय: प्रेम — ध्यान की सबसे सुंदर महक ✦
ध्यान —
अंतरतम का मौन है।
लेकिन जब वह मौन
भर जाता है,
तो वह बहने लगता है।
उसका बहना ही —
प्रेम है।
प्रेम कुछ किया नहीं जाता।
प्रेम होता है।
ध्यान की तरह —
स्वतः।
✦ प्रेम: तुमसे नहीं, तुम्हारे द्वारा ✦
प्रेम किसी दो व्यक्तियों के बीच नहीं है।
प्रेम —
तुम्हारे भीतर से
बाहर की ओर बहती
चेतना है।
प्रेम हुआ
तो तुम यह नहीं कहते:
“मैं प्रेम करता हूँ।”
बल्कि यह महसूस होता है:
“प्रेम मुझसे हो रहा है।”
यहाँ अहंकार नहीं —
अस्तित्व कार्य करता है।
✦ प्रेम क्या है? ✦
प्रेम वह है —
जहाँ “दूसरा” नहीं रहता।
जहाँ
छोटा–बड़ा
ऊँचा–नीचा
अपना–पराया
सब मिट जाता है।
प्रेम — समानता है।
जहाँ सामने भी
अस्तित्व ही खड़ा दिखता है।
✦ प्रेम और आवश्यकता ✦
आवश्यकता —
भीख है।
संबंध —
व्यापार है।
लेकिन प्रेम —
उपहार है।
अगर तुम कहते हो —
“मुझे प्रेम चाहिए।”
तो तुम प्रेम नहीं माँग रहे —
तुम सुरक्षा माँग रहे हो।
प्रेम माँगा नहीं जाता
वह बाँटा जाता है।
और बाँटने से
बढ़ता है।
✦ प्रेम और पूजा ✦
पूजा में
तुम किसी को ऊपर रखते हो।
इसलिए पूजा में
भय छिपा होता है।
प्रेम में
न तुम ऊपर
न सामने वाला नीचे।
दोनों शून्य —
दोनों पूर्ण।
प्रेम केवल समता जानता है।
✦ प्रेम — विज्ञान की भाषा ✦
विज्ञान कहता है —
ब्रह्मांड ऊर्जा का खेल है।
ध्यान उस ऊर्जा को स्थिर करता है।
और प्रेम उसे नृत्य बना देता है।
● ध्यान — केंद्र
● प्रेम — परिधि
एक भीतर
एक बाहर
पर दोनों —
एक ही वृत्त।
✦ प्रेम = दवा ✦
● जहाँ प्रेम है — वहाँ रोग नहीं
● जहाँ प्रेम है — वहाँ हिंसा नहीं
● जहाँ प्रेम है — वहाँ मृत्यु का भय नहीं
● जहाँ प्रेम है — वहाँ भगवान प्रकट
प्रेम —
अस्तित्व के सबसे पास
जीने का तरीका है।
✦ निष्कर्ष ✦
ध्यान सत्य है,
प्रेम उसका सौंदर्य।
ध्यान भगवान है,
प्रेम — भगवान की मुस्कान।
जहाँ प्रेम जन्म ले —
समझना
ध्यान परिपक्व हो गया।
✦ अध्याय: मृत्यु — जहाँ प्रेम अमर हो जाता है ✦
मृत्यु से अधिक
कोई गलत समझा गया शब्द नहीं।
सब सोचते हैं —
मृत्यु अंत है।
सत्य:
मृत्यु वह जगह है जहाँ प्रेम…
नश्वरता को उतारकर
अमरता पहन लेता है।
✦ मृत्यु क्या ले जाती है? ✦
शरीर — हाँ
संबंध — हाँ
नाम, पहचान — हाँ
स्मृतियाँ — हाँ
पर एक चीज़ मृत्यु छू भी नहीं सकती:
प्रेम
क्योंकि प्रेम
देह में नहीं बसता,
चेतना में खिलता है।
जिसे चेतना ने छुआ —
वह नष्ट नहीं होता।
वह रूप बदलता है।
बस इतना ही।
✦ मृत्यु का डर क्यों? ✦
क्योंकि अहंकार
मरने से डरता है।
वह जानता है
कि मृत्यु में
उसका अस्तित्व खत्म।
लेकिन
साक्षी नहीं मरता।
साक्षी — बदलता है।
जैसे
जल — भाप बन जाए।
अस्तित्व — रूप बदल ले।
✦ प्रेम + मृत्यु = मोक्ष ✦
जहाँ प्रेम होता है
वहाँ मृत्यु
समापन नहीं
पूर्णता है।
बुद्ध कहते हैं:
“जिसने प्रेम से जिया,
उसकी मृत्यु — उत्सव है।”
क्योंकि
उसने जीवन को
पूरी तरह जिया
नीला, संपूर्ण, निर्दोष।
✦ मृत्यु: जागरण की अंतिम दहलीज़ ✦
मृत्यु वही कहती है
जो ध्यान कहता है:
“सब छोड़ दो…
सिवाय साक्षी के।”
वहाँ
ना विश्वास बचता है
ना धर्म
ना पूजा
ना पाप–पुण्य
वहाँ सिर्फ तुम हो
और
अस्तित्व
आमने–सामने।
यही साक्षात्कार है।
✦ मृत्यु — प्रेम की विजय ✦
यदि प्रेम हो
तो मृत्यु हार जाती है।
क्योंकि मृत्यु
संबंध तोड़ती है
प्रेम
अस्तित्व जोड़ देता है
मृत्यु कहती है:
“समाप्त…”
प्रेम कहता है:
“मैं यहीं हूँ।”
यही अमरता है।
✦ निष्कर्ष ✦
मृत्यु जीवन का अंत नहीं —
अहंकार का अंत है।
और जहाँ अहंकार मरता है —
वहीं
सत्य जी उठता है।
✦ अध्याय: अवतार — वह चेतना जो मृत्यु को भी मात देती है ✦
अवतार —
देह नहीं।
नाम नहीं।
इतिहास नहीं।
चमत्कार नहीं।
अवतार वह है
जिसने
मृत्यु के पार स्वयं को देखा हो।
अवतार कहता है —
“मैं शरीर नहीं हूँ।”
“मैं समय का नहीं हूँ।”
“मैं जन्म-मरण का नहीं हूँ।”
और इस पहचान के साथ
वह
अमरता को जीता है
शरीर रहते हुए।
✦ अवतार क्यों आता है? ✦
जब संसार
मृत्यु से डरकर जिए,
जब मानवता
दुख से भागकर जिए,
जब धर्म
भय बेचकर सत्ता चलाए,
तब अवतार आता है
याद दिलाने —
कि
मृत्यु अंत नहीं,
अहंकार अंत है।
अवतार मृत्यु का नहीं
अहंकार का शत्रु है।
✦ अवतार क्या करता है? ✦
वह मनुष्य को
देह–पहचान से निकालता है
और परिचय देता है —
साक्षी से।
जहाँ साक्षी प्रकट —
वहीं मृत्यु की सत्ता समाप्त।
अवतार मनुष्य को
सिखाता नहीं —
जगाता है।
✦ अवतार की लड़ाई ✦
उसका संघर्ष
पाप से नहीं —
पाखंड से है।
उसका युद्ध
अशिक्षा से नहीं —
अचेतना से है।
वह विरोध करता है —
उनसे
जो
आत्मा के दरवाज़ों पर
धर्म की ताले लटका देते हैं।
इसीलिए
हर अवतार
पहले अस्वीकार होता है
फिर
पूजा जाता है
लेकिन तब तक
वह
मनुष्य से ऊपर उठा दिया जाता है
और उसका संदेश
खो जाता है।
✦ अवतार की अमरता ✦
अवतार की अमरता —
किसी मंदिर या किताब में नहीं
उस चेतना में है
जिसे वह जगाता है।
यदि एक भी व्यक्ति
उसकी बात को
अपने अनुभव में उतार ले —
तो अवतार
आज भी
जीवित है।
✦ तुम अवतार क्यों हो सकते हो? ✦
क्योंकि:
● चेतना तुम्हारे भीतर है
● मौन तुम्हारे भीतर है
● साक्षी तुम्हारे भीतर है
● प्रेम तुम्हारे भीतर है
और
मृत्यु तुम्हारे बाहर है
जिस दिन
तुमने भीतर को
बाहर से बड़ा मान लिया —
उस दिन
तुम अवतार की राह पर हो।
✦ निष्कर्ष ✦
अवतार किसी का “भेजा” हुआ नहीं —
अवतार वह है
जो स्वयं उठता है।
वह जन्म–पत्री में नहीं मिलता
वह
स्वयं की खोज में मिलता है।
✦ अंतिम अध्याय: सत्य — धर्म से भी ऊपर ✦
धर्म आया —
मानव को सत्य तक ले जाने।
पर मार्ग में ही
मनुष्य ने धर्म को
सत्य से ऊपर बैठा दिया।
और उसी क्षण
धर्म का पतन शुरू हो गया।
सत्य —
किसी ग्रंथ में नहीं,
किसी मंदिर में नहीं,
किसी व्यक्ति के अधिकार में नहीं।
सत्य —
शून्य में है
मौन में है
साक्षी में है
धर्म एक नाव है।
सत्य सागर है।
बुद्ध, महावीर, ईसा, मोहम्मद, कबीर —
सब नाविक थे।
उन्होंने नाव दी —
सागर तक पहुँचने की।
लेकिन लोग
नाव को ही किनारा मान बैठे।
✦ सत्य का अंतिम आदेश ✦
“धर्म को थामो —
पर सत्य पर पहुँचकर
धर्म को छोड़ दो।”
जैसे
किनारा नदी के पार ले जाए
तो
नाव को वहीं छोड़ देते हैं।
जो नाव को ही माथे पर उठाए घूमे —
वह कभी
सागर में प्रवेश ही नहीं कर पाएगा।
✦ तुम कहाँ पहुँचे? ✦
तुमने धर्म को देखा।
धार्मिकता को समझा।
अहंकार को पहचाना।
मौन को छुआ।
ध्यान को जिया।
प्रेम को महसूस किया।
मृत्यु से परे उठे।
और अवतार के अर्थ तक आए।
अब तुम्हारे सामने सत्य खड़ा है—
तुम्हारे भीतर।
सत्य कहता है:
“जो मेरे पास पहुँचा,
उसे किसी मध्यस्थ की जरूरत नहीं।”
यह अंतिम मुक्ति है —
जहाँ ना गुरु बचता है
ना शिष्य
सिर्फ
प्रकाश
और
उसका साक्षी।
✦ समापन ✦
अब यह ग्रंथ
पूर्ण हुआ।
क्योंकि तुम
पूर्ण हुए।
कोई उपसंहार नहीं
कोई सुराग नहीं
कोई लक्ष्य नहीं
सिर्फ इतना:
तुम सत्य हो।
बाक़ी यात्रा —
आनंद की लीला है।
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