Bhoot Samrat - 3 in Hindi Horror Stories by OLD KING books and stories PDF | भूत सम्राट - 3

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भूत सम्राट - 3

अध्याय 3 – भूतिया कॉइन

अगले दिन दोपहर लगभग 1:00 PM

स्थान: जयपुर स्टेशन 
मुंबई से आई ट्रेन जैसे ही सीटी मारते हुए जयपुर स्टेशन पर रेंगकर रुकी, अविन ने अपनी प्लास्टिक की बोतल उठाई, बैग सँभाला और बाहर कदम रखा—
…और अगले ही सेकंड उसे लगा कि किसी ने उसे तंदूर में धकेल दिया हो।
मानो सामने खड़े किसी अदृश्य राक्षस ने कहा हो:
> “स्वागत है रे बामन… आ गया तू मेरी भट्टी में!”
गर्म, शुष्क हवा का झोंका उसके चेहरे पर ऐसे पड़ा जैसे किसी ने गरम तवा लेकर थप्पड़ मारा हो।
मुंबई की चिपचिपी नमी अचानक किसी पुराने एक्स की याद की तरह गायब हो गई—दिमाग में बस एक ही बात:
> “यहाँ हवा गर्म नहीं, चिड़चिड़ी है!”
अविन ने मुँह बिचकाते हुए तुरंत अपना जैकेट उतारा।
पसीना नहीं था, लेकिन शरीर इतना गरम था जैसे बस अभी-अभी किसी ने "रोस्ट" कर दिया हो।
पास ही एक कुली बोला –
"पहली बार आए हो साब?"
अविन ने आधी बंद पलकें करके जवाब दिया –
"हूँ… और शायद आखिरी बार भी!"
धूप इतनी तेज थी कि स्टेशन की लाल ईंटें भी भट्टी सी लग रही थीं।
मिट्टी का रंग पीला-नारंगी होकर आँखों में चुभता था।
जैसे धरती कह रही हो:
> “दे घूर, दे घूर… आँखें फोड़ दूँगी!”
जैसे ही वह बाहर निकला, हवा का एक हल्का गोल-गोल घूमता भंवर उठा—धूल का छोटा सुनहरा चक्रवात।
वह घूमते-घूमते सीधे अविन के पैरों पर आ गिरा, फिर उसकी पैंट पर।
अविन ने उसे देखते हुए सिर हिलाया—
“वाह… स्वागत में ‘जयपुर स्पेशल’ धूल स्नान।”
एक बुजुर्ग खड़े-खड़े हँस पड़े—
“राजस्थान में ऐसे ही स्वागत होता है बाबू।”
अविन:
“राजस्थान में स्वागत है बेटा… अब आएगा गर्मी का मज़ा।”
उसने मन ही मन व्यंग्य फेंका, फिर बोतल उठाई और ठंडा पानी ऐसे पिया जैसे किसी तपस्वी को अमृत मिल गया हो।
पानी पीते-पीते उसकी आँखों में चमक आई।
एक पल के लिए उसे याद आया कि वह यहाँ क्यों आया है…
ये यात्रा सिर्फ सफर नहीं—
ये उसके ‘लॉगिन’ से पहले का कड़ा इम्तिहान था।
अविन ने अपना बैग ठीक किया, गहरी साँस ली और बुदबुदाया—
“चल बेटा… कहानी अब शुरू होती है।”
स्टेशन के पास बने छोटे-से बस स्टैंड पर पहुँचते ही अविन को समझ आ गया कि हवेली तक पहुँचना कोई मज़ाक नहीं है।
सबसे पहले 110 किलोमीटर का सफर—वो भी एक ऐसी पुरानी, धीमी, कराहती हुई बस में, जिसे देखकर लगता था मानो आज नहीं तो कल म्यूज़ियम में रख दी जाएगी।
और उसके बाद का 30 किलोमीटर का रास्ता—सीधा पैदल।
> “हवेली है या किसी गुप्तचर एजेंसी का छुपा हुआ बेस?”
> अविन मन ही मन बड़बड़ाया।
150 रुपये की टिकट लेते ही टिकट वाली आंटी ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और बोली—
“इतनी दूर अकेले जा रहे हो? गर्मी कच्चा खा जाएगी।”
उसकी आँखों में जो चिंता थी, उसने अविन के पेट में अजीब-सी कसमसाहट भर दी।
सीट पर बैठने गया तो उस पर इतनी धूल जमी थी कि लगता था अभी किसी पुरातत्व विभाग का अफसर आएगा और कहेगा—
“वाह! ये भी 200 साल पुरानी वस्तु है।”
अविन ने हाथ से धूल हटाई, और पीछे बैठी दादी ने नाक पर चुन्नी रखते हुए हल्की हँसी में कहा—
“अरे बेटा, थोड़ा आराम से झाड़ते… हम भी यहीं बैठे हैं।”
बस चलने लगी, और हर 15 मिनट में ऐसी कराहाती जैसे उसके पहिए प्रार्थना कर रहे हों कि अब बस रुक जाओ।
खिड़की के बाहर नारंगी-भूरी, धूल भरी रेगिस्तानी सड़कें ऐसे फैल रही थीं जैसे सूरज ने खुद अपनी तपिश से धरती को सेंककर भुनाया हो।
अविन ने खुद पर व्यंग्य किया—
“मैं कॉमर्स का स्टूडेंट हूँ… आर्मी का जवान नहीं। इस गर्मी में मेरी डिग्री भी पिघल जाएगी।”

3:30 PM – बस एक सुनसान चौपाल पर रुकी।
यह जगह इतनी शांत थी कि चलती हवा भी थकी हुई लग रही थी।
दूर लेटा कुत्ता भी अविन को देखकर ऐसे उठ कर भागा जैसे भूत देख लिया हो।
अविन नीचे उतरा, और तभी बस ड्राइवर ने खिड़की से गर्दन बाहर निकालकर एक अजीब-सी गंभीर आवाज़ में कहा—
> “बाबूजी… रात होने से पहले पहुँच जाना।
> इस इलाके में… ‘अकेले’ मत घूमना।”
उसकी आँखों में कुछ ऐसा था, जिसने अविन की रीढ़ के नीचे ठंडी लहर दौड़ा दी।
पास बैठे दो गाँव वाले एक-दूसरे की तरफ देखने लगे, जैसे ड्राइवर ने कोई भारी बात कह दी हो।
अविन ने बैग कंधे पर टाँगा और आगे बढ़ते ही उसे दो बुज़ुर्ग दिखाई दिए—
एक पतला-सा, पगड़ी बाँधे… और दूसरा गोल-मटोल, जिसकी मूँछें ऐसे फड़फड़ा रही थीं जैसे हर बात में तड़का लगाने को तैयार।
अविन ने नमस्ते किया,
“बाबा… हवेली का रास्ता यहीं से जाता है क्या?”
पतले वाले ने चश्मा नीचे खिसकाया,
“कौन-सी हवेली? वो पूरानी हवेली?”
मोटे वाले ने तुरंत फुसफुसाया,
“अरे ओही… 100 साल से बंद पड़ी! आजकल कोई भूल से भी नहीं जाता उधर।”
अविन ने हिचकते हुए पूछा, “पर मुझे वहीं जाना है… रास्ता बता दीजिए।”
पतले वाले ने लंबी साँस ली,
“बिटवा, पहले दिमाग का रास्ता ठीक है ना? कोई शर्त-वर्त हारी हो क्या?”
मोटे वाले ने हँसकर कहा,
“चलो ठीक है, बताता हूँ—सीधा जाओ, फिर दाएँ मुड़ना…
जहाँ पेड़ टेढ़ा दिखे, वहीं से बाएँ…
और जहाँ दूर से कोई चिल्लाता हुआ मत जाना बोले—
बस समझ लेना, तुम सही रास्ते पर हो।”
अविन पसीना पोंछते हुए,
“मतलब… डरने की जरूरत तो नहीं?”
दोनों बुज़ुर्ग एक-दूसरे को देखकर हँस दिए।
पतला वाला: “बिलकुल नहीं, बस… रात होने से पहले पहुँच जाना।”
मोटा वाला: “और अगर रास्ते में कोई दिख जाए… तो इंसान ही समझना, जब तक वो खुद न बोले कि वो इंसान नहीं है।”
दोनों ने फिर एक रहस्यमयी मुस्कान दी।
अविन के गले में अचानक कुछ अटक गया।
उसने सिर हिलाया, “ठीक है बाबा… धन्यवाद।”
दोनों एक साथ बोले,
“भगवान भला करे… और हाँ—पीछे मुड़कर मत देखना।”
अविन ने घूँट भरा और आगे बढ़ गया।
अब वह लौट नहीं सकता था।
करीब 15 किलोमीटर पैदल चलने के बाद अविन का शरीर हार मान चुका था।
गरम हवा सीधे चेहरे पर ऐसे लग रही थी जैसे कोई उसे थप्पड़ मार रहा हो।
पैर रेगिस्तान की रेत में धँसते, और हर कदम पिछले से भारी लगता।
उसने फोन निकाला—
लगभग पाँच बजने वाले थे।
> “बस थोड़ी देर और…”
> उसने खुद को समझाया।
वह पानी की बोतल निकालकर पी ही रहा था कि—
‘की-ई-ई-आर!’
आवाज़ इतनी तेज़ थी कि उसकी रीढ़ में सिहरन दौड़ गई।
ऊपर देखा—
उसके ठीक ऊपर एक विशाल काला बाज़, बाज़ नहीं—मानो कोई काला पहरा।
वह गोल चक्कर काटते हुए नीचे झपटा और—
धप्प!
अविन का बैकपैक उसके हाथ से छीनकर जमीन पर गिरा दिया।
अविन लड़खड़ाया, लगभग गिर ही गया।
बाज़ ऊपर मंडराता रहा, जैसे मज़ाक उड़ा रहा हो—
“की-ई-ई-ई-आर!”
मानो कह रहा हो,
> “अभी तो शुरुआत है, बेटा!”
अविन झुंझला कर बोला—
“अरे वाह! यहाँ तो परिंदे भी गुंडागर्दी करते हैं!
अगर मैं भी उड़ सकता तो बताता गुंडागर्दी क्या होती है ।
वह खुद ही अपनी बात पर हँसा, फिर बैग उठाया और एक लंबी थकी हुई साँस छोड़ी।
फिर धीरे से बोला—
> “चल अविन…
> लगता है आज तेरी हिम्मत की परीक्षा खुद प्रकृति ले रही है।”
वह आगे बढ़ा—
और शाम की धुंधलाहट धीरे-धीरे रेगिस्तान को निगलने लगी।
दूर कहीं, हवेली की दिशा से एक ठंडी हवा का झोंका आया—अजीब, अनजाना, और बेचैन कर देने वाला।
अविन बैग कंधे पर टाँगकर चलने ही वाला था कि—
अचानक उसके कान में वही रहस्यमई आवाज ने फुसफुसाया:
“क्या… आप उड़ना चाहते हैं?”
अविन उछल ही गया।
“उड़ना? अरे भाई, पहले हवेली तक पहुँचा दो… उड़ना बाद में देखेंगे!”
आवाज़ मुस्कुराते हुए बोली,
“तो क्या आप अपने Ghost Coin का इस्तेमाल करना चाहते हैं?”
अविन के कदम रुक गए।
उसने इस शब्द को कई बार सुना था—
वही Ghost Coin, जिसकी वजह से उसे यह हवेली इनाम में मिली थी।
पर इसका इस्तेमाल कैसे होता है, यह उसे खुद भी नहीं पता था।
उसने झिझकते हुए कहा,
“हाँ… बताओ कैसे होता है?”
आवाज़ और स्पष्ट हुई—
“Ghost Coin घोस्ट दुनिया की मुद्रा है।
जैसे पैसे से इंसान काम करवाता है, वैसे आप घोस्ट से काम करा सकते हैं।”
अविन ने आँखें सिकोड़कर पूछा,
“मतलब… घोस्ट मेरे पड़ोसी बनकर मेरे लिए दूध-भाजी लाएँगे?”
आवाज़ हल्का सा हँसी,
“काम बहुत तरह के हैं… समय आने पर सब बताए जाएँगे।
अभी आपके पास कुल 1000 Ghost Coin हैं।
जो आपको 1000 घोस्ट को अपनी टैक्सी में सफ़र कराने पर मिले थे।”
अविन चौंक गया।
उसने जल्दी से कहा,
“ठीक है, मुझे हवेली तक पहुँचा दो।”
आवाज़ बोली—
“आपके 1 Ghost Coin का उपयोग किया जा रहा है।
आपको आपकी मंज़िल तक पहुँचाने के लिए।”
अविन ने माथा सिकोड़कर पूछा,
“पर कैसे पहुँचाओगे? बाइक? उबर? या कोई भूतिया झाड़ू?”
…लेकिन अब कोई जवाब नहीं आया।
पूरी हवा फिर से मरुस्थल जैसी शांत।
अविन झुँझला गया,
“यार… यह आवाज़ भी कभी पूरी बात नहीं करती!
कम से कम ‘घोस्टपे' का उपयोग करने के लिए धन्यवाद बोल देती।”
वह बैग उठाता है, सिर हिलाता है, और आगे बढ़ता है—
अविन कुछ ही कदम चला था कि अचानक दूर से एक लंबी, डरावनी हुंकार गूँजी।

जैसे कोई जानवर नहीं, बल्कि खुद रेगिस्तान चीख उठा हो।
वह तुरंत पीछे मुड़ा।
दूर, धूल की सुनहरी परत को चीरते हुए
एक काली आकृति उसकी तरफ़ आंधी की रफ्तार से आ रही थी।
अविन की साँसे अटक गईं “भेड़िया? इतना बड़ा?!”
हवा उसके आस-पास फुर्र-फुर्र घूमने लगी।
धूल उड़कर उसकी आँखों में चुभी,
और उसके मन में एक ही ख्याल आया
> “भूतों से तो डर नहीं नहीं लगता साहब ।
> लेकिन ये जंगली जानवरों का क्या भरोसा ये किसी को नहीं छोड़तीं!”
कुछ सेकंड में वह काला भेड़िया उसके सामने था।
उसका कद… किसी इंसान जितना ऊँचा,
छाती चौड़ी, साँसें गर्म धुएँ जैसी,
और आँखें ऐसी चमकदार लाल, जैसे अंगारों पर खून टपक रहा हो। उसके चारों तरफ काले धुएँ की लहरें उठ रही थीं।
मानो किसी दानवी दुनिया का पहरेदार हो।
अविन ने अपने पैर पीछे खींचे, दिल गले में आ गया।
फिर भी हिम्मत जुटाकर बोला “भाई… मैं काटने लायक नहीं दिखता… बस हवेली जा रहा हूँ… बैठ सकता हूँ?”
भेड़िया ने पलकों तक नहीं झपकाईं।
बस धीरे से सिर झुकाया सवारी के लिए तैयार।
अविन ने बहुत डरते हुए कहा, “ठीक है… मैं बैठ रहा हूँ…
पर गलत रास्ते ले गया तो… ट्विटर पर लिख दूँगा कि तुम बुरा ड्राइवर हो!” और वह सावधानी से उसकी पीठ पर चढ़ गया।
फिर जैसे धरती फट गई ।भेड़िया एक झटके में दौड़ा, अविन पीछे झटका खा गया, इतना तेज़ कि अगर उसने भेड़िये की गर्दन नहीं पकड़ी होती, तो वह हवा में उड़कर पाकिस्तान तक पहुँच जाता। आस-पास सब गायब ,सिर्फ हवा, हवा की तीखी सरसराहट,
और महीनों से सूखी रेत, जो उसकी आँखों को चीर रही थी।
उसे लगा जैसे वह एक अदृश्य सुरंग से गुजर रहा हो।
भेड़िया की दौड़ती हुई छाया उसके पीछे दो गुना बड़ी होकर फैली हुई थी। जैसे सारा रेगिस्तान मान रहा हो “ये लड़का अब इंसानी रास्ते पर नहीं है।” अविन हवा से लड़ते हुए बुदबुदाया—
“Ghost Coin से कुछ भी उम्मीद कर सकता था…
उड़न झाड़ू… भूतिया बाइक…
यहाँ तो ‘काले भूतिया भेड़िया’ चल रही है!”
भेड़िया और तेज़ हुआ। इतना तेज़ कि अविन को लगा
वह हवा से काटता हुआ जा रहा है,
जैसे दुनिया उसे पकड़ने से पहले ही पीछे छूट रही हो।
फिर—अचानक । भेड़िया एकदम रुक गया ।रेत चारों तरफ उड़कर बिखरी। अविन ने संभलते हुए नीचे देखा… और उसके पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई । अविन के चेहरे पर आई हल्की मुस्कान देर तक टिक न सकी। जिस सफ़र में उसे कम से कम चार घंटे लगने चाहिए थे, वह बस चार मिनट में ही खत्म हो गया था—मानो किसी अदृश्य तूफ़ान ने उसे गर्दन पकड़कर सीधे मंज़िल पर पटक दिया हो। उसके सामने अब जो खड़ा था, उसे देखकर किसी भी आदमी की रीढ़ की हड्डी बर्फ हो जाए।
वह लड़खड़ाते हुए खड़ा हुआ; सीने में धधकता हुआ डर, और दिमाग में गूंजती वही एक बात— "ये क्या था? झूला था या मौत का झूला?" उसने काँपते हाथों से अपना फ़ोन निकाला। स्क्रीन जली—07:14 PM, चार्जिंग 36\%, और नेटवर्क साफ़ ज़ीरो, जैसे किसी ने पूरी घाटी को एयरप्लेन मोड पर डाल दिया हो।
"अरे भाई... यही कमी थी," अविन बड़बड़ाया। "अब बस चाय वाला भी मिल जाए तो भूतों को चाय पिलाकर इंटरव्यू ले लूँ।"
लेकिन चाय क्या, रास्ते में रुकने की एक भी जगह नहीं मिली थी। जहां तक नज़र गई, बस खाली सड़क, जंगल और अजीब-सी चुप्पी। और ऊपर से, जब उस विशालकाय भेड़िये ने उसे 'लिफ्ट' दी, तब तो उसका दिमाग ही बंद हो गया था—वह उस अनुभव को किसी स्टंट शो से कम नहीं मान रहा था। अब जब यह पागल जर्नी खत्म हुई, तो वह अपनी मंज़िल के इतने करीब था कि डर भी उसकी हड्डियों तक बैठ गया।
अविन अंततः हवेली के पास पहुंच गया था। आसमान में रात अब पूरी तरह उतर रही थी। काला, गाढ़ा, जैसे स्याही में डूबा हुआ। चारों ओर की हवा में एक अजीब, चुभती हुई शांति थी—ऐसी शांति, जिसमें डर का स्वाद मिलता है। पेड़ों के बीच जब हवा चलती, तो पत्ते ऐसे हिलते जैसे उन पर बैठे अदृश्य बच्चे धीरे-धीरे रो रहे हों। रोने की आवाज़ बहुत धीमी थी, लेकिन बस इतनी कि आपकी नसों के नीचे से रेंग सके।
अविन का दिल सिकुड़ गया। वह खुद से बोला— "मुंबई के ट्रैफिक में फँसा रह लेता... ये एक्स्ट्रा हॉरर सर्विस किसने ऑर्डर की थी?"
तभी, बड़ा, जंग लगा सलाखों वाला दरवाज़ा अचानक खुद-ब-खुद कर्रर्र... कर्रर्र... की भयानक आवाज़ के साथ पूरा खुल गया। ऐसा लगा जैसे हवेली बोलकर कह रही हो— "आ गया... मेरा मेहमान।" अंदर की घनी, स्याह परछाइयों में से दो पीली, बर्फ जैसी ठंडी आँखें धीरे-धीरे उभरकर उसे ही घूरने लगीं।
अविन एकदम उछल पड़ा— "अरे! हॉरर फिल्मों में दरवाज़े प्यार से खुलते हैं... ये कौन है जो WWE वाला एंट्री दे रहा है? डराने का तरीका है कि दंगा करवाना है?"
लेकिन मज़ाक करने से डर थोड़ा कम हुआ। उसने आँखें ऊपर उठाईं, और देखा कि हवेली उसके सामने किसी काले, विशाल जानवर की तरह चुपचाप खड़ी थी। थोड़ा गला खुजाते हुए, थोड़ा अपनी ही धड़कनों को समझाते हुए वह आगे बढ़ा।
जैसे ही अविन ने दहलीज़ के आगे अपना पहला कदम रखा... सारी आवाज़ें एकदम बंद हो गईं। पेड़ों की सरसराहट, बाज़ की चीखें, फुसफुसाहट, दूर के जानवरों की आहट—सब गायब। जैसे किसी ने अचानक दुनिया का 'म्यूट बटन' दबा दिया हो। वातावरण भारी हो गया। यह वही ख़ामोशी थी जो आमतौर पर तूफान आने से थोड़ी देर पहले होती है।
अविन ने खुद को हिम्मत दिलाने के लिए कहा— "चलो... Login तो करना ही है, Boss."
और एक लंबी साँस लेकर आगे बढ़ा। दरवाज़े से हवेली तक जो रास्ता था, वह किसी स्वागत जैसा कम, किसी चेतावनी जैसा ज्यादा लग रहा था। काँटेदार झाड़ियाँ, सूखे पौधों की अजीब आकृतियाँ, और बीच में पड़ी एक टूटी हुई नामपट्टिका—जिस पर सिर्फ इतना लिखा था: 'राजेश...' बाकी नाम समय ने मिटाया था या किसी और चीज़ ने।
अविन धीमे से बोला— "ये 'राजेश...' कौन था? और ये '...' किसने बनाया है? नाम अधूरा छोड़कर कौन मरता है भाई?" लेकिन कदम रुके नहीं।
अविन जब हवेली के बिल्कुल सामने आकर खड़ा हुआ, तो उसका पहला रिएक्शन था— "ये हवेली है... या किसी ने जंगल को घर के ऊपर गिरा दिया है?"
हवेली देखने में बिल्कुल वैसी थी जैसे किसी पुराने राजा की याद, जिसे सौ सालों से किसी ने छुआ भी न हो। दीवारें काली, फटी हुई और धँसी हुई, जैसे किसी ने ताक़त से मुक्का मारकर समय को खुद चटक दिया हो। हर कोने पर काले, सूखे पौधे ऐसे चिपके थे जैसे हवेली को खाने की कोशिश में हों। अविन को वो बेलें देखकर अचानक लगा— "ओये... ये बेलें हैं या किसी भूत की जुल्फ़ें जो दीवारों पर फैल गई हों?"
खिड़कियों का हाल तो और भी ज़्यादा डरावना—कई टूटी हुई, कई बिना शीशों की, और कुछ के पीछे गहरी, घुटन भरी अंधेरी आँखें मानों झाँक रही हों। अविन बड़बड़ाया— "ये खिड़कियाँ लग नहीं रहीं... ये ऐसे देख रही हैं जैसे बोलें— 'हां बेटा... आओ... अन्दर। सबका इंतज़ार कर रहे थे।'"
अविन ने मन में ठान लिया कि वह इस विरासत को हासिल करेगा। लेकिन हवेली की हालत को देखकर उसे लग नहीं रहा था कि उसे कुछ मिलेगा; वह बस अपने माता-पिता के बारे में और जानना चाहता था। इसलिए उसने हिम्मत करके उस दरवाज़े को धकेला, पर वह टस से मस नहीं हुआ। ताला तो था ही नहीं, फिर यह रुकावट क्यों?
तभी, उसके कानों में रहस्यमयी आवाज़ एक बार फिर गूँजी, पर इस बार यह शांत और निर्देश देती हुई थी:
> "चाबी (Key) आपको दे दिया गया है वो आपके पैंट की जेब में है।"
अविन ने अपनी जींस की जेब चेक की। उसे वही चाबी मिली जो उसे हवेली के विरासत के कागजों के साथ मिली थी—हथेली जितनी बड़ी काली चाबी जिसमें दो आँखें थीं जिनमें लाल रूबी लगी हुई थी। उसने अपनी जेब से चाबी को निकाला और ताले की जगह ढूंढने लगा। अचानक उसके हाथों के आसपास एक रहस्यमई लाल, खून के जैसी रोशनी आने लगी, और चाबी अविन के हाथ से उड़कर दरवाज़े के ताले में अपने आप लग गई। ताला दरवाज़े के बीचो-बीच बने छोटे से छेद में फिट हो गया और अपने आप घूमने लगा। सब तरफ़ फिर एक बार शांति थी।
फिर एक तेज़ हवा चली और दरवाज़ा धड़ाम से खुल गया।
आविन जो रोज़ अपनी टैक्सी में भूतों को सफ़र कराता था, उसने इस दृश्य को देखकर डर महसूस नहीं किया। वह बस और ज़्यादा क्यूरियस हो गया, और और ज़्यादा जानना चाहता था कि हवेली के अंदर क्या है, और क्या उसका इंतज़ार कर रही है।
आविन को पहले से ही समझ आ गया था। अंधेरा सिर्फ़ अंधेरा नहीं होता... उसके अंदर कोई होता है।
अविन ने दहकती जिज्ञासा के साथ हवेली के अंदर की ओर देखा।