अध्याय 5 – 100 भूतों का दरबार
समय: रात्रि 07:25 PM
अविन के शरीर का दर्द, सिंहासन की ठंडी, धातु और पत्थर की सतह को छूते ही, एक झटके में ग़ायब हो गया। यह सिर्फ़ दर्द का रुकना नहीं था; यह एक भयानक शून्य का एहसास था, मानो उसकी अपनी जैविक ऊर्जा को किसी ख़तरनाक शक्ति ने सोख लिया हो। वह जानता था कि यह राहत नहीं, बल्कि एक ज़हरीली शक्ति का ट्रांसफ़र है। डर से उसकी साँसें तेज़ हो गईं, लेकिन उसकी 'भूत की आँख' (Ghost Sight) अब भी खुली थी—वह आने वाले हर अप्रत्याशित पल को स्कैन कर रही थी।
सिंहासन पर अविन के बैठते ही, पूरी राजसभा एक ज़ोरदार, भयानक गड़गड़ाहट के साथ गरज उठी। यह ध्वनि इतनी गहरी थी कि छाती के अंदर हड्डियाँ तक थरथरा उठीं। दीवारों पर टंगी तलवारें, 300 साल पुरानी जंग के बावजूद, थरथरा उठीं। फर्श की सदियों पुरानी धूल अचानक ऊपर उठी और फिर अदृश्य हो गई।
एक ठंडी, घनी सफेद धुंध हॉल के मुख्य द्वार से तेज़ी से फैल गई।
अविन की 'भूत की आँख' ने उस धुंध में झाँका। उसे कुछ दिखाई दिया—मानवीय रूप, लेकिन स्थिर नहीं। वे आकार ले रहे थे, जैसे कि एक पुराना, टूटा हुआ मूर्ति ठीक हो रहा हो।
* करीब 100 आकृतियाँ—एक-एक करके उस धुंध से उभरने लगीं।
* वे अब पहले की तरह सड़े-गले कंकाल डरवाने ओर भयानक नहीं थे। उनकी काया ऐसी थी जैसे वे असली इंसान हों, लेकिन हर कोई सफेद धुएँ के एक पतले, चमकीले आवरण में लिपटा हुआ था। उनके शरीर का निचला हिस्सा अदृश्य था, मानो वे हवा के शून्य में तैर रहे हों।
ये 100 आत्माएँ, वही थी जो अविन को थोड़ी देर पहले दौड़ा रही थी, उसके ऊपर हंस रही थी और जो उसे मारने की इच्छा रख रही थी । वो सभी अब सामान इंसान की तरह दिखाई दे रहे थे लेकिन सभी पारदर्शी थी ।
* सैनिक: लोहे के भारी कवच पहने, भयानक चेहरे वाले योद्धा, जिनकी आँखें अब अंगारों जैसी नहीं, बल्कि शुद्ध नीली रोशनी से जल रही थीं।
* कर्मचारी: टूटी हुई वर्दी और फटी धोती पहने हुए सेवक, जिनके चेहरे पर 300 साल की वफ़ादारी और अंतहीन थकान की परछाई थी।
* दरबारी: भारी, जटिल पगड़ियाँ और कीमती लेकिन फटे हुए वस्त्र पहने हुए अभिजात वर्ग, जिन्होंने अविन को अपलक घूरा—उनके भावों में एक अजीब मिश्रण था: जिज्ञासा, भय और बेइंतहा सम्मान।
इन सभी 100 भूतों ने एक साथ, सटीक समरूपता में अपने सिर झुकाए। उनके मुँह से एक सामूहिक, गहरी, प्राचीन गूँज निकली—
> "रा...जा...!!!" (Maharaja!!!)
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अविन (मन में): 'ये सब! ये सौ लोग... मेरे सामने क्यों झुक रहे हैं? मैं तो बस सिर्फ़ इस सिंहासन पर बैठा ही हूं! कहीं कोई भयानक ग़लतफ़हमी तो नहीं हो गई है? मुझे यहाँ से तुरंत निकलना होगा! लेकिन दरवाज़ा... बंद है और ये सभी मेरे सामने झुक कर बैठे है।अगर मैंने भागने की कोशिश की, तो वे मुझे फाड़ देंगे!'
इनका कोई भरोसा नहीं है।
डर और अनिश्चितता के दलदल में डूबते हुए भी, अविन ने अपनी बुद्धि को बल दिया—"अगर भाग नहीं सकते, तो राजा की तरह बैठना ही पड़ेगा।" उसने पीठ सीधी की और अपनी आँखों में अनियंत्रित डर को छुपाने की कोशिश की।
सबसे पहले, विशालकाय सेनापति वीरभद्र (7 फ़ीट 2 इंच) धुंध को चीरता हुआ सामने आया। उसका भारी, ज़ंग लगा कवच अब पहले से ज़्यादा चमकदार लग रहा था; उसकी चाल किसी प्रशिक्षित राजपूत योद्धा की तरह राजसी थी। वह किसी भी क्षण दहाड़कर हमला करने के लिए तैयार दिख रहा था, लेकिन उसका चेहरा अटूट सम्मान से भरा था। ये वही 7 फीट का काले कोहरे से लिपटा हुआ तलवार से हमला करने वाला भूत था जिसने थोड़ी देर पहले अविन को लात मारी थी।
वह अविन के सामने आया, पूरी विनम्रता से अपने घुटनों पर बैठ गया, और अपने भारी सिर को झुकाया।
> वीरभद्र: "सेनापति वीरभद्र, आपके सेवा में। महाराज राज राजेश चौहान की जय हो!"
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वीरभद्र ने सिर उठाया। उसकी नीली आग वाली आँखें सीधे अविन की 'भूत की आँख' से मिलीं। उसकी आवाज़ अब केवल भारी नहीं थी, बल्कि उसमें 300 साल का दर्द, इंतज़ार और एक भयंकर प्रतिशोध की प्यास थी।
> वीरभद्र: "300 साल से हम आपके सिंहासन पर बैठने की प्रतीक्षा कर रहे थे, महाराज।"
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अविन: "क... क्यों...?" (उसने अपनी आवाज़ को राजा जैसा बनाने की कोशिश की, लेकिन वह हकला गया।)
> वीरभद्र: "क्योंकि असली राजा का ख़ून... ही इस सिंहासन पर बैठ सकता है । 300 सालों से हम सब आपका इंतजार कर रहे हैं। महाराज राज राजेश चौहान..., तब से इस हवेली ने किसी और को स्वीकार नहीं किया। जो कोई भी इस सिंहासन पर बैठने की कोशिश करता है वो कुछ ही पल में रहस्यमय तरीके से मर जाता है।
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अविन (मन में): मर जाता है? वो सिंहासन से उछलकर कूदने ही वाला था पर वह सिंहासन से इस तरह चिपका था मानो वह उसी का हिस्सा हो, उसके चेहरे के भावनाएं तुरंत ही बदल गई? जिसमें डर और निरंतर उठने का प्रयास था। क्या यह भूत... मुझे कोई दूसरा ही आदमी समझ रही है? या फिर मेरे अतीत में कोई ऐसा राज़ है जो मुझे पता ही नहीं? क्या मेरे पूर्वज...!'
वह जल्दी से परिस्थिति को जानने, समझने और उसे स्वीकार करने की कोशिश करता है। अगर वह राजा है, तो उसे अपनी मौत तक, राजा की तरह व्यवहार करना होगा। और ये महाराज राज राजेश चौहान कौन था जो ये मुझे समझ रहे है ।
अविन अभी सेनापति के शब्दों के अर्थ को समझने की कोशिश कर ही रहा था कि उसके दाएँ कोने में अचानक हवा ज़ोर से घूमी, जैसे किसी अदृश्य वस्तु ने वायु को विस्थापित कर दिया हो। बिना किसी पदचाप या चाल की आवाज़ के, जैसे कोई अदृश्य प्रशासक अचानक प्रकट हो जाए, मंत्री रघुवन सामने आ गया।
वह एक पारंपरिक 300 साल पुराने भारतीय पंडित जैसा दिख रहा था—दुबला-पतला, लंबा, माथे पर टीका, भारी पगड़ी, और हाथ में फटी हुई ताड़पत्रीय पांडुलिपियाँ। उसकी आँखें पूरी तरह से काली थीं, जैसे वे रौशनी नहीं, केवल समय के भयंकर भूतकाल को देखती हों।
वह अविन के पास आया। उसकी आवाज़ चिकनी या रेंगती हुई नहीं थी, बल्कि एक चालाक, प्राचीन प्रशासक की थी जो हर शब्द को तौलकर बोलता है।
> रघुवन: "मैं मंत्री रघुवन... राज्य का दिमाग़, महाराज। यह हवेली आपको स्वीकार कर चुकी है, इसलिए मैं आपको यह सत्य बताने का साहस कर रहा हूँ।"
>
अविन: "बोलो।" (वह अपनी आवाज़ में पहली बार दृढ़ता लाने में सफल रहा।)
> रघुवन: "आप हमारे महाराजा राज राजेश चौहान हैं।" जो 300 साल पहले यहां राज किया करते थे ।
> (वीरभद्र ने तुरंत रघुवन को घूरकर देखा, लेकिन मंत्री ने उसे अनदेखा कर दिया।)
> रघुवन: "आप 'हमारे राजा' हैं... आपको 300 साल का एक क़र्ज़ उतारने हैं।"
>
अविन (मन में): 'नया राजा! क़र्ज़! ये सब 300 साल पहले की बात कर रहे हैं और मुझे उसमें फँसा रहे हैं? लेकिन मैं तो अभी 25 साल का हूं, ये मुझे किस मुसीबतों में फंसा रहे हैं। मुझे बस यहां रात बितानी थी और ये हवाले मेरी हो जाती, हवेली के साथ 100 भूत भी मिलेंगे ये कौन बताएगा ।
स्वीकार करो, अविन! पहले जान बचाओ, फिर भागना। राजा की तरह बैठो और इस ड्रामे को ख़त्म करो!'
अविन ने गहरी साँस ली और सिंहासन पर थोड़ा सीधा हो गया। स्वीकृति का पहला चरण पूरा हुआ।
अविन को वो रहस्यमई आवाज फिर से सुनी दी जिसने कहा, बधाई हो अविन आपने लॉगिन को 50% पूरा कर लिया है।"
> "इनाम के तौर पर, आपको 100 GHOST COINS मिलते हैं।"
> "साथ ही, आपको एक Key मिलती है।"
अविन मन ही मन बढ़ बढ़ाया चाबी क्यों मिल रहा हैं।
> "आपको ख़ज़ाना चाहिए था न, अविन?"
> उस रहस्यमई आवाज ने कहा ।
"ख़ज़ाना!?"
जैसे ही 'ख़ज़ाना' शब्द उसके कानों में गूँजा, अविन का दिमाग़ तुरंत 'राजा', 'दरबार', 'मौत', 'क़र्ज़'—सब कुछ भूल गया। उसका 13 साल का अकेला संघर्ष, और रोज का हॉरर अनुभव, और पैसे की कमी उसके दिमाग़ पर किसी बुखार की तरह हावी हो गई। उसका कॉमर्स का विद्यार्थी और उसकी सारी व्यावहारिक सोच तुरंत जाग उठी।
अविन (जोर से चीख़ते हुए): "हाँ! ख़ज़ाना! कहाँ है? मुझे ख़ज़ाना चाहिए!"
वह सिंहासन से ऐसी उछला जैसे उसे किसी ने आग लगा दी हो।
वह भूतों को पार करता हुआ, अपनी पूरी ताक़त से हॉल के सामने वाले दरवाज़े की ओर दौड़ा। हैरानी करने वाली बात थी थोड़ी देर पहले वह सिंहासन से चिपका हुआ था और अब उस रहस्यमई आवाज के साथ वो बस सिंहासन से सामान्य तरह से अलग हो गया ।
दरबार के 100 भूत—सैनिक, सेवक, दरबारी—एकदम स्थिर, शांत, और अचंभित होकर अपने नए, पागल राजा को भागते हुए देखते रहे। उनके 300 साल के इंतज़ार का पहला राजकीय आदेश, "मुझे ख़ज़ाना चाहिए!" था।
अविन ने दौड़ते हुए दरवाज़े को ज़ोरदार धक्का देने की कोशिश की, लेकिन वह केवल बाहर से ठोस, ठंडा पत्थर जैसे था जो जरा सा भी नहीं हिला।
धड़ाम!!! की आवाज़ के साथ
अविन का सिर ज़ोर से दरवाज़े से टकराया। उसकी आँखों के सामने तारे चमक गए, और वह ज़मीन पर ढेर हो गया, बस अंतिम फुसफुसाहट उसके मुँह से निकली:
> "ख़ज़ाना..."
>
उसका पहला राजकीय कार्य—भागने की कोशिश—विफल रहा। अब वह 100 भूतों के दरबार में ज़मीन पर पड़ा था, जिसका लालच उसकी बुद्धि पर हावी हो चुका था।