Udan - 2 in Hindi Short Stories by Asfal Ashok books and stories PDF | उड़ान (2)

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उड़ान (2)

शाम से बातें शुरू हो गईं।

उन्होंने लिखा—'दिव्या, तुम्हारी लेखनी में दर्द भी है और विद्रोह भी। मैंने कभी किसी में इतनी गहराई नहीं देखी।'

'जी सर,' दिव्या ने जवाब में लिखा, 'आपकी हौसलाअफजाई से आत्मविश्वास काफी बढ़ा, शुक्रिया कि आपने इस लाइक समझा।'

दूसरे दिन सुप्रभात के बाद फिर लिखा अविनाश जी ने, 'आप बैचलर हैं, तो मैं भी अकेला हूँ। पत्नी 4-5 साल पहले छोड़कर चली गई थी। अब तो आपकी तरह ही किताबों और मंदिर में शांति ढूंढता हूँ।'

पर्युषण के दिनों में वे जिनालय आने लगे।

जब सामूहिक चँवर डुलाई और स्तवन गायन होता, दिव्या श्वेत वस्त्रों में सबसे आगे खड़ी होती।

अविनाश जी सबसे पीछे खड़े, हाथ जोड़े, आँखें सिर्फ दिव्या पर टिकीं।

आरती के बाद दिव्या जब बाहर निकलती, वे दूर से मुस्कुराते और सिर झुका लेते।

एक शाम आरती के बाद उन्होंने कहा—'आप जब चँवर डुलाती हो, लगता है कोई अप्सरा धरती पर उतर आई हो। मैं आपको देखकर जी लेता हूँ।'

दिव्या ने पहली बार किसी को अपना पूरा दर्द सुनाया—'कि घर में उसे “सफेद हाथी” कहा जाता है, कि भाभी उसकी साड़ियाँ पहन लेती हैं पर उसे नई नहीं दिलवातीं, कि पापा अब उससे नजरें नहीं मिलाते, कि माँ हर रात रोती हैं और कहती हैं “मरने से पहले तुम्हारी मांग में सिंदूर देख लूँ”।'

अविनाश ने उसका हाथ थामा और कहा—'मैं तुम्हें यहाँ से निकाल लूँगा। शादी कर लेंगे। जैसे हो, वैसे। तुम IAS बनो, मैं सहारा बनूँगा।'

दिन बीतते गए और दोस्ती गाढ़ी होती गई। जब कोई आपसे तुम पर आ जाता है तो फिर यही होता है! अब रातों में भी एक-दूसरे के ख्वाब आने लगे... रात रात भर चैट बॉक्स खुला रहता। दिव्या किताबों के बारे में, कंपटीशन के बारे में पूछने अक्सर ऑफिस पहुंच जाती। अविनाश उसका नृत्य देखने के लिए ही जिनालय।

एक दिन हाथों में हाथ लेकर कह दिया, 'ऑफिस में उतनी बात नहीं हो पाती, कभी-कभार शाम को घर आ जाया करो तो कुछ टिप्स दे दिया करूं!'

दिव्या दिनभर उनके लंबे पंजों में अपने छोटे और मुलायम पंजे दबे हुए महसूस करती रही।और एक शाम बंगले पर चली आई। ड्राइंग रूम में फ्रेम जड़े तीन फोटो थे। एक में युवा अविनाश और उनकी पत्नी, दूसरे में दो बच्चे और तीसरे में उनकी मां।

दिव्या समझ गई फिर भी अविनाश ने तीनों का परिचय दिया। कहा, 'एक समय यह सब मेरे साथ थे, अब कोई नहीं है।'सुनकर वह शोक से सिहर उठी और अविनाश की बाजू पकड़ उन पर ढह गई क्योंकि पत्नी का तो उसे पता था, माँ और बच्चों का नहीं।

तभी अविनाश बोले, 'पत्नी ऊपर चली गई... बच्चों और मम्मी को वहीं किराए पर एक फ्लैट लेकर शिफ्ट कर दिया है।'

'कहाँ, क्यों?' उसके मुंह से निकला।

'जहां पहले था,' अविनाश ने उसकी चिंता से मुतासिर हो उसे गले लगाते हुए कहा, 'शिक्षा सत्र चल रहा था, सो मां और बच्चों को वहीं रखना पड़ा।'

'अच्छा!' उसका शोक जाता रहा, और पहली बार गले मिलकर सुकूँ भी मिल गया। अविनाश भी उसके आ जाने से आज बेहद खुश थे। बहुत ही चपल। बच्चों की तरह हाथ पकड़ सारा घर घुमा रहे थे। बैडरूम, किचन, आंगन, गेस्ट रूम और लॉन भी। दिव्या को बहुत अच्छा लग रहा था और वह कामना कर रही थी कि एक दिन यह सब उसके पास भी होगा।

'एजुकेशन में आपने क्या किया है?' वह चहक रही थी।

'लॉ ग्रेजुएट...'वे उसे सोफे पर बैठा पत्नी की ड्राइंग्स और अपने प्रमाण पत्र दिखा उठे। यहां तक कि उसकी गोद में शील्ड, फ्रेम जड़े फोटोज, और एल्बम की भीड़ लग गई। जो उनकी उपलब्धि-गाथा गया रहे थे। दिव्या को अच्छा लग रहा था और हसरत मचल रही थी कि एक दिन उसके पास भी ऐसी ढेर सारी उपलब्धियां हों।प्रदर्शन खत्म हो गया तो उन्होंने पूछा, 'कॉफी पियोगी!'

'नहीं, अभी पी कर आई हूं।'

'अच्छा चलो खाना खाते हैं।'

'नहीं, खाना बनाने में तो देर हो जाएगी...'

'खाना तैयार है,' वे मुस्कुराए, 'तुमसे जब बात हुई, तब ऑफिस में था। जल्दी आकर बना लिया!'वह चमत्कृत हो गई, 'आपने खाना बनाया! आप खाना भी बना लेते हैं?'

'तुम्हारे लिए तो कुछ भी। और अभ्यास नहीं करना पड़ेगा... जब तुम साथ रहोगी, मैं ही बनाया करूंगा नहीं तो तुम्हारा समय नष्ट होगा!'

सुनकर भावविभोर हो फिर उनके गले लग गई। और हर्ष से कांपने लगी कि- ईश्वर ने सारी तपस्या का फल एक साथ दे दिया... कोई ऐसा गार्जियन जीवनसाथी के रूप में मिलेगा उसे उम्मीद नहीं थी। पर उसने अलग होते हुए कहा, 'देर हो जाएगी, सर!' और चल दी।

तब अविनाश ने जैसे हींड़ कर बाँहों में भर ली, 'नहीं होगी, अभी टाइम ही कितना हुआ, और खाना मैंने तुम्हारे लिए ही बनाया... मेट को तो आज मना कर दिया था।'

अविनाश की आंखों में इतना प्यार देख वह निसार हो गई। वे लोग वहां से उठकर लॉबी में डाइनिंग टेबल पर आ गए।

टेबल पर दो प्लेटें थीं— सादी दाल, जीरे का चावल, भिंडी की सब्जी और एक कटोरी दही। कोई दिखावा नहीं, बस घर जैसा खाना।

दोनों आमने-सामने बैठे। अविनाश ने उसकी प्लेट में परोसते हुए कहा, 'खाओ आज, मेरे हाथ का पहला निवाला।'

दिव्या ने चम्मच उठाया, पर उसकी नजरें अविनाश पर थीं। वे उसे ऐसे देख रहे थे जैसे कोई भूखा सालों बाद खाना देख रहा हो।

खाते-खाते बातें हुईं।

'तुम्हारे हाथ में जादू है...' उसने कहा।

अविनाश मुस्कुराए, 'असली जादू तो तुम हो। तुम जब नृत्य करती हो, रोम रोम पुलकित हो उठता है...'

खाना खत्म हुआ।अविनाश ने प्लेटें साइड कीं और दिव्या का हाथ अपने हाथ में ले लिया।

'दिव्या…' उनकी आवाज जैसे बहुत दूर से आ रही थी, 'मैं महीनों से तुम्हें छूने को तरस रहा था।'

दिव्या आँखें नीची किए बोली, 'मैं भी… पर डर भी लगता था।'

'डर किसका?'

'कि अगर मैंने खुद को दे दिया… फिर आप चले गए तो?'

अविनाश ने अपना हाथ उसके सीने पर रख दिया, 'मैं अब कहाँ जाऊँगा...'

और दिव्या की आँखें बंद हो गईं। उसने सिर्फ सिर हिलाया। और अविनाश उसे गोद में उठा बेडरूम में ले आये। रूम में हल्की पीली रोशनी।

अविनाश ने उसे दीवार से सटाया, होंठ उसके कानों को छूने लगे और एक कुंवारा तन बिजली के तार-सा झनझना उठा। फिर वे उसे बेड पर ले आए और लेटाते ही दिव्या की साँसें गहरी हो गईं। पर उसने हँसते हुए कहा, 'मैं तो एक सफेद हाथी हूँ… जिससे कोई कमाई नहीं होती, उल्टे उसका मेंटेनेंस करना पड़ता है।'

अविनाश चपल थे, उन्होंने उसकी कमर में हाथ डाले, और ओठों से उसकी गर्दन चूमते हुए बुदबुदाए, 'तुम सफेद हाथी तो मैं भी अरबी घोड़ा... इतना तेज-तर्रार कि पीठ पर कोई आसानी से नहीं बैठ पाता। पहली बार में ही उछाल देता हूँ।'

फिर वे उसके ऊपर छाते हुए गहरी मदहोशी में हँसे, 'लेकिन… एक बार कोई सवारी कर ले न, तो उसे बार-बार हवाई सैर कराता हूँ, ऐसी कि वह फिर कभी उतरना न चाहे।'

दिव्या की साँसें तेज हो गईं। अविनाश की कमर अपनी कलाइयों में कस ली उसने। फिर एक हल्की-सी चीख छोड़, नाखून पीठ पर  गड़ा दिए।

फिर लय बनी।

धीमी… फिर तेज… फिर इतनी तेज कि बेड चीखने लगा। और दिव्या की उँगलियाँ उनके कंधों में धँस गईं।रफ्तार कायम रखते हुए अविनाश उसके कान में फुसफुसाये, 'लो, हवाई सफर शुरू…'पसीना, आहें, कराहें।

दिव्या की आँखों से आँसू निकल आए— सुख के, दर्द के, या राहत के, पता नहीं।

जब सब खत्म हुआ, वह जाने लगी। पर अविनाश उसे बाहों में ले गिड़गिड़ाने लगे, 'तुझसे मिलने से पहले मैंने अपना मन समझा लिया था... लेकिन तू मिल गई तो रोज मिलने के सपने आने लगे और भाग्य से आज हमबिस्तर हो ली तो अब अधूरा छोड़कर न जा!'

जाहिर है, तुमसे वे तू ओर आ गए थे...। दिव्या समझ रही थी कि यही अनन्यता है! उसे अपने आप पर अभिमान हो आया कि- मैं सफेद हाथी कितने काम की... एक अफसर तक जिसके आगे घुटने टेक दे! फिर भी मुस्कुराते हुए कहा उसने, 'देर हो जाएगी... कल से निकलना मुश्किल करोगे तुम!'

'कल तो अटैची लेके आना...' वे उसके कान में फुसफुसाये। और यह सुन वह इतनी भावुक हो गई कि फिर समय का पता न चला।

'ये ले… हवाई सैर फिर शुरू…मैंने कहा था, न...' अविनाश ने ऊपर आते हुए कहा।

उम्मीद की डोर थामे कष्ट सहते हुए भी दिव्या साथ देती रही। जबकि दोबारा मैं उसकी उतनी इच्छा नहीं बची थी। पर शिथिल पड़ने के बाद भी पसीने से भीगी वह उनसे लिपटी रही और अविनाश उसके माथे पर किस करते रहे, 'तू मेरी है… हमेशा। कल सुबह सबसे पहले बच्चों से बात करूँगा।'

...

सुबह कोई मैसेज नहीं आया। उसने सोचा देर रात तो वह लौटी है। कहो वे देर तक सोए हों! उसके बाद ऑफिस। मैसेज शायद, शाम को आए या फिर शाम को बात करेंगे तो कल सुबह। मगर मैसेज दो-तीन दिन तक नहीं आया। वह लगातार देखती कि ऑनलाइन हैं या नहीं? कभी दिख जाते और वह लिखती तब तक ऑफलाइन हो जाते। तब उसने रात 1:30 बजे बड़ी हिम्मत जुटा कर 'हेलो' लिखा।

सुबह जवाब आया— 'सॉरी दिव्या… बच्चे तैयार नहीं। मां की भी यही ताकीद कि तीस साल की करियर वाली लड़की घर नहीं चला सकेगी। और सच कहूँ… हमने जल्दबाजी की। हम अच्छे दोस्त हैं न? Take care.'

फिर नंबर ब्लॉक।

दिव्या कई दिन तक फोन थामे बैठी रही।

फिर एक दिन उसने सिम तोड़ दिया।

...

घर में रोज एक तेज तूफान उठता।

'रात भर कहाँ थी?'

जवाब आने से पहले तक सोचती रही कि एक दिन सीना फुला कर बता देगी। पर जवाब आने के बाद कहा कि- धोखा खा गई!

तो माँ का थप्पड़। पिताजी की चीख—'इस घर में तेरी इज्जत नहीं बची। निकल जा।'

और उसी रात दिव्या बैग उठाकर निकल आई।

माँ दरवाजे पर हाथ जोड़े रो रही थीं। बाहर मूसलाधार बारिश।

घुंघरू भीग गए, साड़ी चिपक गई, पर आँसू नहीं निकले।

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