चार साल बीत गए।
परिवीक्षा-अवधि पूर्ण हुई और एडिशनल कलेक्टर के रूप में एक साल का कार्यानुभव भी, तब जाकर डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर (DM/DC) का पहला चार्ज मिला– कलेक्टर, सिवनी जिला।
श्वेत साड़ी अब भी वही, घुंघरू अब भी वही, पर अब कंधे पर तिरंगे वाली शाल भी थी।
जब उसने पहली बार कलेक्ट्रेट में एंट्री की तो पूरे स्टाफ ने स्वागत में खड़े हो तालियाँ बजाईं। सबसे पीछे खड़ा एक अफसर चुपचाप देखता रहा।
उसके हाथ में फाइल थी, आँखें नीची। दिव्या ने एक बार देखा और फिर नज़र फेर ली। जैसे कुछ देखा ही न हो।
उस अफसर का नाम था– अविनाश शर्मा। यहां वह एडीएम/एसडीएम नहीं, अपने मूल पद का स्वामी महज एक डिप्टी कलेक्टर था। कलेक्ट्रेट के कुछ सेक्सनों का ओआईसी।
मामला पलट गया था। अब वह दिव्या के अधीन था। पहली मीटिंग में दिव्या ने बिना नाम लिए कहा, “सभी अधिकारी अपनी-अपनी रिपोर्ट शाम तक मेरी टेबल पर रखें।”
अविनाश ने सिर्फ़ “जी मैडम” कहा और बाहर चला गया।
उसकी आवाज़ में वही पुरानी थकान न थी, बल्कि एक अजीब-सी निर्जीवता भी।
शाम को दिव्या केबिन में जब अकेली थी, दरवाज़ा हल्का-सा खुला, “मे आई कम इन, मैडम?”
उसने सिर उठाया। अविनाश झुका खड़ा था। हाथ में फाइल।
“रख दीजिए।”
कक्ष में दबे कदमों से प्रवेश कर उसने फाइल बाअदब टेबल पर रख दी। जाने लगा तो दिव्या ने कहा, “रुकिए।”
अविनाश रुक गया।
दो पल बाद दिव्या ने धीरे से पूछा, “बच्चे कैसे हैं?”
अविनाश की साँस अटक गई। पिछली घटना के बाद वह सामना नहीं करना चाहता था, पर किस्मत ने फिर वहीं लाकर खड़ा कर दिया, जब उसे आईएएस अवार्ड होने की जगह इस जिले में आकर एडीएम पद से भी हाथ धोना पड़ा।
“ठीक हैं, मैडम... तमन्ना अब बारह की हो गई, आरव पन्द्रह का। दोनों… आपकी बहुत याद करते हैं।” उसने किसी तरह कहा।
दिव्या ने फाइल खोली, जैसे कुछ पढ़ रही हो, “कहिए उनसे… दीदी…मम्मा अब बहुत व्यस्त हैं, पर याद करती हैं।”
अविनाश ने सिर झुका लिया, “जी।”
वह चला गया, दरवाज़ा बंद करके।
दिव्या कुर्सी पर बैठी रह गई। उसके ओठ एक गीत गुनगुनाने को मचल उठे: छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल...आँखें बंद कर लीं। तीन साल पुरानी वो टपकती छत याद हो आई, और अविनाश का जलवा, जब आफिस से बुलवाने वह गाड़ी भिजवा देता, छुड़वा भी देता। धोखे से नफरतजदां मगर एहसान तले दबी वह गर्दन अक्सर झुकाए रखती। फिर वो ज्यादती- वो शनिवार की रात... बाँहों में भर लेना, बेतहाशा चूमना और वश में कर लेना। और फिर बरसाती में ले लाकर... सारी की सारी बेशर्मी, हठधर्मी एकबारगी याद हो आई।
मेज पर सिर रख दिया।
माना कि प्यार में होता है यह... पर वह प्यार तो न था... प्यार होता तो सफेद हाथी जान नम्बर ब्लॉक न किया होता... कलेक्टर बनने के बाद भी रोना आ गया।
...
दिन गुज़रते गए।
दोनों के बीच सिर्फ़ फाइलें और “जी मैडम”।
पर एक रविवार शाम को कलेक्टर बंगले के बाहर एक छोटी-सी गाड़ी रुकी। उससे तमन्ना और आरव उतरे। दिव्या बरामदे में आई। बच्चे दौड़कर गले लग गए।अविनाश दूर खड़ा रहा।
दिव्या बच्चों को लेकर लॉन में जा बैठी। घंटों बातें, हँसी, खेल। शाम ढलते-ढलते बच्चे चले गए।
दिव्या अकेली बैठी रही...।
फिर हर रविवार की शाम यह होने लगा।
तब बहुत दिन बाद एक शाम जाते हुए अविनाश हिम्मत जुटाकर कर बोला, “मैडम… एक चाय?”
दिव्या ने सिर उठाया, “अंदर आ जाइए।”
अंदर आते ही बच्चे धमा-चौकड़ी मचाते और अंदर चले गए। कोई सवा चार साल बाद अविनाश और दिव्या घर के एक कमरे में अकेले थे। पर कोई किसी से कुछ बोल नहीं रहा था। चाय का प्याला हाथ में। चाय खत्म कर ली। फिर अविनाश ने हिम्मत की, “मैंने कभी नहीं सोचा था कि आप मेरी कलेक्टर बनकर आएंगी।”
दिव्या ने मुस्कुरा कर कहा, “मैंने भी नहीं सोचा था कि तुम मेरे अधीन काम करोगे।”
दोनों हँस पड़े।
पहली बार।
फिर अविनाश उठा। लगा चला जाएगा मगर वह दरवाज़े पर रुक कर बोला, “मैडम… बच्चों की माँ नहीं है। पर अब उन्हें मम्मा मिल गई है। शुक्रिया।”
दिव्या ने कुछ नहीं कहा। बस सिर हिला दिया। रात में बच्चे वहीं रुक गए।
...
फिर महीने बीतते गए।
बच्चे हर रविवार आते। धीरे-धीरे अविनाश भी लॉन में बैठने लगा। बातें होने लगीं। काम की, ज़िंदगी की, पुरानी बातों की बातें। दिव्या के संघर्ष की, अविनाश के एकाकीपन की...।
फिर एक रविवार की रात। बारिश हो रही थी तो अविनाश का डिनर भी वहीं हो गया। डिनर के बाद हर रविवार की तरह बच्चे खेल-कूदकर सो गए। तब दिव्या भी सोने के लिए उठकर में चली आई। और अविनाश पीछे पीछे! मगर उसने देखा तो चौखट पर ठिठक गया। बाहर तेज बारिश हो रही थी। उसने धीरे से कहा, “दिव्या...ज्जी!"
"बोलो!"
"बारिश नहीं रुक रही..."
"बैठो!"
"अविनाश भीतर आ, हिम्मत जुटा, पलंग के कोने पर बैठ तो गया। देर तक कुछ बोल नहीं पाया। दिव्या ने नजरें चेहरे पर टिका दीं, "कुछ कहना है!"
"हां," वह हिचकिचाते हुए कहने लगा: "मैं अब भी वही बात कहना चाहता हूँ जो सात साल पहले नहीं कह पाया था।"
"तुम अब! मुझसे शादी करना चाहते हो?"
"हाँ..."
"जब सफेद हाथी नहीं रही?"
"नहीं, उसके लिए नहीं।"
"फिर... हवा में उड़ाने के लिए...!" उसने कटुता से कहा।"
नहीं-नहीं...!" वह शर्मिंदा हो गया। कुछ प्रेम-जनित भय से और कुछ हवा के झोंकों से उसकी आवाज कांप रही थी।
दिव्या ने अपनी कमर तक कंबल ओढ़ रखा था। उसने अविनाश से भी कहा, "कंबल ले लो, सर्दी है।"
"नहीं-नहीं, अब तुम मेरी बॉस हो, मैं तुम्हारा मातहत।"
"पर इसके पहले हम कुछ और थे, वह तुम्हें याद है..." इतने सालों में पहली बार मुस्कुराई वह। और अविनाश सुबकने लगा। उसने सुबकते हुए ही कहा, "तुम्हारा दिल बड़ा है... तुमने मुझे माफ कर दिया..."
और तब दिव्या ने उसे कम्बल ओढ़ा अपनी बाहों में भर लिया, "मैं तो पहले भी तैयार थी, अविनाश! गणित तो तुम्हीं ने लगा लिया...।"
"जानता हूं... मैं ही मूर्ख, खुदगर्ज था..." वह रोने लगा।
दिव्या उसके बालों में उंगलियां फेरती मुस्कुरा रही थी, "अब बुद्धिमान हो गए!"
"नहीं," उसने उसके माथे पर किस किया, "बस… बच्चे पूछते हैं कि मम्मा हमेशा के लिए कब आएगी।”
दिव्या चुप रही।
बहुत देर तक।
फिर भावुक होते हुए बोली, “अविनाश… मैंने सोचा था, अब अकेले ही उड़ूँगी। पर उड़ते-उड़ते पता चला कि आकाश में कुछ सितारे ऐसे भी होते हैं जिनके बिना उड़ान अधूरी रहती है।”
...
सुबह कलेक्टर बंगले के बरामदे में चार लोग थे। दिव्या, अविनाश, तमन्ना, आरव। तमन्ना ने पूछा, “मम्मा, अब आप कब आओगे हमारे, इधर?”
दिव्या ने उसे गोद में उठाया, “बेटू! अब आप कहीं नहीं जाओगे, हमेशा यहीं रहोगे, मम्मा पास।”
दूर आकाश में बाल सूर्य मुस्कुरा रहा था। जैसे कह रहा हो– “देखा, मैंने कहा था न…कुछ रिश्ते पूरे होने में वक्त लेते हैं, पर जब पूरे होते हैं, तो आकाश भी छोटा पड़ जाता है।”
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