अकादमी से ट्रेनिंग कंप्लीट होने के बाद दिव्या को संयोगवश एम.पी. कॉडर ही मिल गया। क्योंकि वह उसका गृह राज्य था। सेक्रेटेरिएट में जॉइनिंग के बाद उसे एक जिला में प्रोबेशन पीरियड के अंतर्गत ट्रेनिंग के लिए भेजा दिया गया। दिव्या वहां पहुंची तो जिला मुख्यालय का वह रेस्ट हाउस बड़ा पुराना था और उसे डाक बंगले के नाम से जाना जाता था। उसकी लकड़ी की सीढ़ियाँ चरमराती थीं, दीवारें नमी से भरी हुईं। कमरा नंबर सात।
दिव्या ने दरवाज़ा खोला तो हवा में फिनाइल की हल्की महक थी और खिड़की के बाहर आम का एक पेड़ झूम रहा था।
उसने सूटकेस खोला। सबसे ऊपर श्वेत साड़ी का बंडल। एक साड़ी निकाली, बिस्तर पर बिछाई और लेट गई। छत का पंखा धीरे-धीरे घूम रहा था। उसने आँखें बंद कीं, “यहाँ भी मैं अकेली हूँ,” उसने मन ही मन कहा, “पर अब अकेलापन बोझ नहीं… मेरा कवच है।”
...
अगली सुबह दस बजे कलेक्ट्रेट।
डीएम को जाकर उसने अपनी जॉइनिंग रिपोर्ट दी और उन्होंने उसे एडीएम के लिए मार्क कर दिया। दिव्या लंबी गैलरी पार करके पूछते हुए उनके कक्ष की ओर आ गई। नेमप्लेट पर लिखा था–
अविनाश शर्मा
एडीएम (रेवेन्यू)
उसका माथा ठनक गया। सोचा नहीं था, जिंदगी फिर उसे उसी धोखेबाज शख्स के सामने लाकर खड़ा कर देगी! अब तो इसी के अधीन रहकर उसे अपना प्रोबेशन पीरियड पूरा करना होगा... कैसे करेगी, क्या करेगी; दिल में एक अंतर्द्वंद उठ खड़ा हुआ।
काँपते हाथों उसने गेट खोला, "मे आई कम-इन, सर!"
"आइए।” अविनाश ने आवाज़ की एक नजर फेंक उसे बिना पहचाने कहा। स्वर में पहले वाली चिकनाहट नहीं थी– सिर्फ़ थकान और गंभीरता।
दिव्या दाखिल हो गई। वह कुर्सी पर बैठा था। शर्ट पर खड़ी इस्त्री, करीने से काढ़े गए बाल, वही चमकता मुखमंडल, कोई शिकन नहीं। मगर जब दिव्या को पहचाना तो एक पल के लिए कलम रुक गई। फिर झिझकता-सा हाथ उठा, मिलने के लिए। बदले में दिव्या ने सिर झुका दिया: “प्रोबेशनर दिव्या जैन, रिपोर्टिंग फॉर ड्यूटी, सर।”
“ओक्के, आपका टेबल लगवाता हूँ, बैठिए..." उसे कितनी खुशी हो रही थी यह बयान से बाहर की बात है, "कंग्रॅजुलेशंस! उसने बधाई देते फिर हाथ बढ़ाया। और दिव्या डिनाई नहीं कर सकी क्योंकि- प्रोबेशन पीरियड एक ऐसा समय होता है जब किसी नए कर्मचारी को काम पर रखा जाता है तो उसकी काम करने की क्षमता और व्यवहार का मूल्यांकन करने के लिए। उस परीक्षण अवधि में कर्मचारी को अपने काम को साबित करना होता है।
"बैठिए!" कहते अविनाश ने घंटी का बटन दबाया।
"थेँक्यु सर!" दिव्या बैठ गई।
चपरासी हाजिर हुआ। उसने कहा, "बाबूजी को बुलाओ।"
"जी साहब!" कहकर चपरासी दौड़ा, बाबू को बुला लाया।
अविनाश ने परिचय कराया, 'आप मिस दिव्या जैन, आईएएस प्रोबेशनर। अधिकारी जी के लिए यहां एक अलग से टेबल लगवा दो।'
थोड़ी देर में वहां एक टेबल, कुर्सी और छोटी सी अलमारी नमूदार हो गई। और दिव्या ने सोचा कि लो, अब एक ही केबिन में दो लोग साँस लेंगे।
...
पहले पंद्रह दिन काँटों जैसे थे...। अविनाश चाय मँगवाता, दिव्या ठंडी होने देती। शाम को पूछता, “डिनर साथ करेंगी?” दिव्या मना कर देती। रात को डायरी में लिखती–'आज फिर वही आँखें देखीं। पछतावा है या खेल, पता नहीं। पर मैं नहीं पिघलूँगी।'
फिर एक रात तेज़ बारिश हुई। रेस्ट हाउस की छत टपकने लगी। दिव्या ने बाल्टी रखी, किताबें बचाईं, बिस्तर गीला हो गया। सुबह आँखें लाल थीं। अविनाश ने देखा तो बोला, “वहाँ नहीं रहा जाता, कोई अफसर नहीं रहता। भूत बंगला समझो उसे तो, कैसे नींद आती होगी...?"
दिव्या कुछ न बोली। अविनाश ने आगे कहा:
"मेरा बंगला काफी बड़ा है। उसका गेस्ट रूम भी खाली है। माँ और बच्चे इंदौर में रहते हैं। मैं अकेला, आप आ जाओ, न...।”
इस बार वह बोली और उसने मना कर दिया। जबकि बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी। बगल वाली छत का एक हिस्सा भी गिर गया था। पर हार नहीं मान रही थी...। मगर उस दिन, शनिवार शाम अविनाश की गाड़ी रेस्ट हाउस के बाहर आकर रुक गई। उसमें से दो प्यारे बच्चे उतरे। तमन्ना (आठ साल) और आरव (ग्यारह साल) दौड़कर वे दिव्या से लिपट गए।
“दीदी-दीदी!”
तब मजबूरन वह बच्चों को लेकर अविनाश के बंगले पर चली गई। पर अलग कमरे में सोई।
अब हर शनिवार गाड़ी आ जाती। और वह चली जाती। मगर सिर्फ़ शनिवार-रविवार को रुकती, जब बच्चे रहते। बाकी पाँच दिन रेस्ट हाउस में।
हर रविवार शाम बच्चे इंदौर लौटते और दिव्या रेस्ट हाउस।
बस यही एक दिन था जब वह उस घर की देहरी लाँघती थी। बाकी दिन केबिन में एक अजीब-सी खामोशी और दूरी।
बच्चों के साथ दिव्या खिल उठती। तमन्ना उसकी गोद में बैठकर साड़ी के पल्लू से खेलती। आरव गणित के सवाल पूछता। दिव्या उन्हें कहानियाँ सुनाती, राजस्थानी दाल-बाटी बनाना सिखाती, लोरी सुनाकर सुलाती। धीरे-धीरे तमन्ना उसे “मम्मा” कहने लगी। पहली बार जब यह शब्द निकला तो दिव्या की आँखें भर आईं। उसने बच्ची को सीने से लगाया और अविनाश की तरफ देखा। अविनाश खामोश खड़ा था। उसकी आँखें भी नम थीं। उस सैटरडे की रात को, डिनर के बाद बच्चे जब सो गए तो, जैसे किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत दिव्या और अविनाश छत पर चले आए। कुछ देर वे कुछ नहीं बोले। बस चाँद देखते रहे...।
मगर अगले वीकेंड की रात अविनाश ने धीरे से कहा, “मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरा घर फिर से घर बन जाएगा।”
उसकी इस बात से मुतासिर हो दिव्या ने उसकी आंखों में देखा, और दो पल बाद उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। फिर एक निश्वास छोड़ धीरे से छोड़ दिया।
मगर उसके बाद रातें भारी होने लगीं।
रेस्ट हाउस लौटकर दिव्या तकिए में मुँह छिपाकर रोती। वह जानती थी– यह जो कुछ भी है, सिर्फ़ शनिवार से रविवार तक है। सोमवार सुबह फिर “सर” "मेडम" और दूरी।
अविनाश भी रातों में जागता। बच्चों की तस्वीरें देखता, फिर दिव्या की चुपके से खींची फोटो– श्वेत साड़ी में, बच्चों के बीच मुस्कुराती हुई।
उसे सीने से लगाकर बुदबुदाता, “काश उस दिन मैंने ब्लॉक न किया होता…”
पाँचवाँ महीना चल रहा था।
एक शनिवार, रात बच्चे सो चुके थे। दिव्या छत पर थी। अविनाश ऊपर आया।
“दिव्या… छह महीने पूरे होने वाले हैं।”
“हाँ।”
“तुम चली जाओगी?”
“हाँ," दिव्या ने चाँद की ओर देखते कहा, "अगला जिला मिल गया है…दूर, बहुत दूर।”
अविनाश चुप। फिर बोला, “मैंने ट्रांसफर कैंसिल करवाने की कोशिश की थी। नहीं हुआ।”
दिव्या ने दर्द भरी मुस्कान दी, “कोशिश की ज़रूरत न थी। मैंने खुद नहीं रुकवाया।”
"क्यों?" दर्द उमड़ पड़ा, बाँहों में भर लिया उसने। और उसने छुड़ाया नहीं। एक आशंका भी थी...। प्रोबेशन पीरियड में, कर्मचारी का प्रदर्शन देखा जाता है। अगर वह अच्छा करता है, तो नियुक्ति स्थायी कर दी जाती है!सबके साथ नहीं होता यह।
लेकिन वह एक बार बेड शेयर चुकी थी तो उंगली दबी थी। मना नहीं कर पाई। अविनाश बाँहों में लिये ही चूमने लगा। चूमना सिर्फ रुखसार तक होता तो गनीमत थी, उसने तो गले की नस पर ओठ रख दिये और गर्दन पीछे को झुक गई तो कान की लौ दांतों तले दबा ली! फिर ओठ ओठों में भर, चूसने लगा...।
सीत्कार युक्त साँसें जब गहरी हो गईं, अविनाश दिव्या को गोद में धर, बरसाती में ले आया! बच्चे नीचे सो रहे थे, बेखबर। ऊपर बरसाती में, वह दिव्या को उकसा रहा था।
काम के जुर से पीड़ित आवाज थरथरा रही थी, 'तुम्हारा लेख कंठस्थ है, दिव्या... मगर मैं उसके इस मन्तव्य से सहमत नहीं कि "स्तनों को ढकने की मजबूरी इसलिए है क्योंकि समाज ने ही उन्हें सेक्सुअल ऑब्जेक्ट बना दिया है... इसे खूबसूरती और यौनाकर्षण का प्रतीक बना कर छिपाया जाता है, जिससे उत्सुकता और लालच बढ़ता है... आपका मानना है कि ये पूरी तरह social construct है और अगर हम स्तनों को सेक्सुअल ऑब्जेक्ट की तरह देखना बंद कर दें, तो उन्हें ढकने की कोई जरूरत नहीं रहेगी... यानी खुलापन सामान्य हो जाएगा और पुरुषों की नजर बचाने की मजबूरी खत्म...। मेरा मानना है कि- ये महज सामाजिक निर्माण नहीं है। स्तन वास्तव में जैविक रूप से यौनाकर्षण का एक प्राथमिक अंग हैं। ये पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन बढ़ाते हैं, सेक्सुअल उत्तेजना पैदा करते हैं और स्त्री में भी स्पर्श से ऑक्सीटोसिन व अन्य हॉर्मोन्स रिलीज कर यौनेच्छा जगाते हैं। बेबी... ये आकर्षण और उत्तेजना प्रकृति ने डिजाइन किया है, समाज ने नहीं।'
कहते कहते उसने स्तन उघाड़ लिए थे और उन्हें सहला रहा था।
हवा ठंडी और रात गहरा गई थी। मगर दिव्या हवा से नहीं, देह में कामुकता के बढ़ जाने से कांप रही थी। स्तन उसके अब तक काफी भारी हो गए थे और कुचाग्र उन्नत।
मन उसे भले धिक्कार रहा था पर उसकी देह-दहलीज पर एक अनोखी-सी दस्तक हो रही थी...।
और वहां अब वह नमी पैदा हो गई थी जो एक बार आ जाए तो फिर जाने का नाम नहीं लेती...।
अविनाश एक अनुभवी पुरुष। स्त्री की इस कमजोरी से भलीभांति परिचित था। प्रेरित कर उसने उसकी कमर का वह निचला भाग खोल लिया और वहां अपना अंग रोप, कामुकता भरी हँसी हँसने लगा, 'मे-म! माना कि अब आप सफेद हाथी नहीं... पर अपन तो अब भी वही अरबी घो-ड़े हैं!'
साँसें उल्टी, और दिव्या मजबूर हो गई... परिणाम स्वरूप फिर एक दबी चीख, और गति पकड़ने से जैसे पायदान पर खड़ा यात्री गाड़ी के हत्थे मजबूती से पकड़ लेता है, उसने अविनाश की कमर अपनी कलाइयों में कस ली और हरेक झटके पर जैसे गिरने से बचने, खुद भी झटके देने लगी।
अविनाश मन ही मन हँस रहा था कि अब तुम आत्मविश्वास से लबरेज हो, इसलिये सम्पूर्ण आनन्द ले रही हो...। यही सोच पूर्णाहुति के बाद उसने दूसरी आवृति हेतु भी उसके नितम्ब अपनी मुट्ठियों में भींच लिए। पर दिव्या उसे एक अप्रत्याशित धक्का दे, दांत मिसमिसाते बोली, 'जानवर मत बनो...'अविनाश खी-खी कर हँसने लगा।
...
आखिरी शाम।
तमन्ना रो रही थी, “मम्मा मत जाओ…” दिव्या ने उसे गोद में उठाया, “मम्मा को जाना है, बेटू। पर मम्मा तुम्हें कभी नहीं भूलेगी।”
आरव ने पूछा, “फिर आओगी न?”
दिव्या ने उसका माथा चूमा, “वादा।” पर आँसू बह निकले, क्योंकि उसे पता था, नहीं आएगी। वादा तो बच्चे का दिल रखने के लिए कर दिया।
शाम को गाड़ी रेस्ट हाउस के बाहर रुकी थी। अविनाश बच्चों को लेकर विदा करने आया था। दिव्या ने जैसे आखिरी बार बच्चों को गले लगाया, फिर अविनाश की ओर देखा, दोनों की आँखें मिलीं... सब कुछ जो कहा नहीं जा सका, उस नज़र में था।
गाड़ी चली। दिव्या ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। देखती तो शायद रुक जाती।
रास्ते में उसने डायरी खोली और लिखा–'मैंने किसी को अपना नहीं बनाया। फिर भी दो बच्चे मुझे मम्मा कहते हैं। एक विधुर मुझे रातों में याद करता है। और मैं उन्हें छोड़कर जा रही हूँ। क्योंकि मैंने खुद से वादा किया था– मैं कभी किसी के लिए नहीं रुकूँगी। मेरा आकाश बहुत बड़ा है। भले ही उस आकाश में अब तीन सितारे हमेशा चमकते रहेंगे, जिन तक मैं कभी पहुँच नहीं पाऊँगी...।'
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