पुराना नगर हाई स्कूल बरसों से वीरान पड़ा था. गर्मियों की एक रात कुछ लड़के बाहर वाले मैदान में खेलते दिखे. उन्होंने इमारत को देखा तो लगा जैसे टूटी खिड़कियों के पीछे कोई खड़ा है. हवा रुकी हुई लग रही थी और सन्नाटा ऐसा था कि पत्ते गिरने की आवाज तक साफ सुनाई देती. लड़कों ने कहा कि स्कूल से आती हल्की सी खड़खड़ाहट अब पहले से ज्यादा तेज हो रही है. उन्हें लगा कि इमारत किसी सोए हुए जानवर की तरह सांस ले रही हो.
इस स्कूल की इमारत ऊंची थी, लकड़ी की खिड़कियां सड़ चुकी थीं और दीवारों के प्लास्टर पर काले धब्बे फैल चुके थे. मुख्य दरवाजे पर पुराना ताला जंग खा चुका था लेकिन अजीब बात यह थी कि हर कुछ दिनों में वह ताला खुला मिलता. गांव वाले कहते थे कि रात में कभी कक्षा संख्या नौ की ओर से धीमी फुसफुसाहट सुनाई देती. किसी बच्चे की जैसी आवाज लगती, पर यहां सालों से कोई पढ़ता ही नहीं था.
कहानी असल में तब शुरू हुई जब गांव के दो भाइयों काशीनाथ और मोहन ने ठान लिया कि वे सच्चाई जानकर ही रहेंगे. दोनों शाम को स्कूल की ओर बढ़े तो रास्ते में लगे नीम के पेड़ ऐसे झूम रहे थे जैसे उन्हें आने की चेतावनी दे रहे हों. मोहन बोला कि लौट चलें पर काशीनाथ जिद पर था. गेट पार करते ही मिट्टी की गंध में नमी घुल गई. लगा जैसे अंदर समय ठहर गया है.
वे आगे बढ़े तो बरामदे में टूटी कुर्सियां बिखरी थीं. पुराने नोटिस बोर्ड पर फटे कागज चिपके थे जिन पर स्याही की फीकी रेखाएं बची थीं. अचानक पीछे से किसी ने कदम घसीटते हुए चलने की आवाज की. दोनों भाई पलटे तो वहां कोई नहीं था. हवा ठंडी पड़ गई. दीवारों पर लगे पुराने चित्रों के चेहरे अंधेरे में ऐसे दिख रहे थे जैसे आंखें चमक रही हों.
सबसे डरावना कमरा वही था जहां से बातों के अनुसार आवाजें आती थीं. कक्षा संख्या नौ का दरवाजा आधा खुला था. मोहन ने डरते हुए उसे पूरा धकेला. अंदर घुसते ही मिट्टी उड़ने की बजाय कमरे की हवा जैसे ठंड की लहर में बदल गई. बेंचों की पंक्तियां सीधी थीं जैसे अभी भी बच्चे बैठते हों. पंखा जंग लगा था लेकिन खुद ही थोड़ी देर के लिए घूमता दिखाई दिया.
अचानक ब्लैकबोर्ड पर खड़िया की रगड़ की आवाज आई. काशीनाथ ने देखा कि बोर्ड पर अपने आप एक शब्द उभर रहा था. धीरे धीरे एक नाम बनता गया. सुनीता. दोनों को याद आया कि गांव से सालों पहले एक लड़की गायब हो गई थी. तब शिक्षक कहते थे कि वह पढ़ाई में तेज थी और हमेशा कक्षा में सबसे आगे वाली बेंच पर बैठती थी. उसके गायब होने के कुछ महीनों बाद ही स्कूल बंद कर दिया गया था.
वहीं खिड़की के पास एक हल्की सी आकृति उभरने लगी. धुंध की तरह. बच्चे जितनी ऊंचाई. बाल उलझे हुए. आंखें गहरी काली जिनमें कोई सफेदी नहीं थी. वह धीरे धीरे कमरे के बीच की ओर बढ़ी. उसकी चाल अटकी हुई थी जैसे जमीन से चिपकी हो. दोनों भाई दीवार से लगकर खड़े हो गए. वह आकृति बेंचों के बीच से गुजरती हुई ब्लैकबोर्ड तक पहुंची और उंगली से वही नाम फिर से लिखने लगी, जैसे उसे डर हो कि लोग भूल न जाएं.
मोहन रोते हुए बोला कि यहां से निकलो. दोनों जैसे ही दरवाजे की ओर बढ़े, दरवाजा खुद ब खुद बंद हो गया. कुंडी अपने आप चढ़ गई. पीछे से उस बच्ची की आवाज आई. आवाज में गुस्सा नहीं था. एक दर्द था. उसने कहा कि उसे यहां से कोई नहीं ले गया. उसे खुद स्कूल की दीवारों ने रोका. उसने बताया कि स्कूल के पीछे पुराने कुएं में कुछ ऐसा था जिसने उसे पुकारा और फिर दोबारा किसी को जाने नहीं दिया.
काशीनाथ ने हिम्मत करके पूछा कि वह आखिर चाहती क्या है. जवाब सुनते ही जमीन जैसे हिलने लगी. बच्ची ने कहा कि वह अकेली नहीं है. इस स्कूल में कई और बच्चों की आवाजें कैद हैं. वह सब वापस बाहर आना चाहती हैं, लेकिन किसी को उनकी जगह लेनी पड़ेगी. असली डर तब उभरा जब बच्ची मुस्कुराई. उसकी मुस्कान में भरोसा नहीं था बल्कि किसी नई योजना की चमक थी. उसने कहा कि वह दोनों भाइयों में से एक को चुन चुकी है.
कमरे में अचानक इतनी ठंड फैल गई कि सांसें धुंध बनकर दिखने लगीं. मोहन ने काशीनाथ का हाथ पकड़ा और दरवाजे को धकेला. इस बार दरवाजा खुल गया जैसे किसी ने उन्हें जाने दिया हो. दोनों दौड़ते हुए बाहर निकले. पीछे से वह धीमी फुसफुसाहट फिर सुनाई दी. ऐसा लगा कि कोई उनसे कह रहा हो कि अगली रात लौट आओ, क्योंकि कहानी अभी खत्म नहीं हुई है.
गांव वाले बताते हैं कि उस रात के बाद मोहन तो ठीक था, लेकिन काशीनाथ बदला हुआ लगने लगा. उसकी आंखें काली पड़ गईं. वह रात को जागता था और कई बार बीच रात अकेले स्कूल की ओर जाते देखा गया. डर इस बात का है कि शायद स्कूल ने अपनी जगह पहले ही चुन ली है, और यह बात अभी किसी को समझ में पूरी तरह नहीं आई है.