Guaranteed sandalwood in Hindi Motivational Stories by Aanchal Sharma books and stories PDF | शर्तिया चंदन

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शर्तिया चंदन



चंदन शर्त लगाने का भूखा नहीं था, शर्त जीतकर लोगों की आँखों में चमक देखना उसे अच्छा लगता था।
हो सकता है उसने कभी समझा ही नहीं कि लोग उसके साथ खेलते नहीं—उसे परखते थे।
और वह हर बार खुद को साबित करने निकल जाता।

इसलिए लोग उसे मज़ाक में “शर्तिया चंदन” कह देते थे,
और वह इस नाम को ऐसे पहनता था जैसे कोई पदक।
दोपहर ढल रही थी।
पेड़ों के पीछे सूरज धीमे-धीमे फिसल रहा था।
आनंद ने हँसते हुए चंदन से कहा—

“तू तो बस बातें करता है… अगर हिम्मत है तो बड़ी हवेली के बगीचे से दस आम तोड़कर ले आ।
तू करेगा नहीं… क्योंकि वहाँ किसी की परछाईं भी नहीं जाती।”

चंदन ने उसी पल मुस्कुराकर हामी भर दी।
पर यह मुस्कान थोड़ी मजबूर थी—
क्योंकि बड़ी हवेली का नाम आते ही उसकी माँ की आँखें याद आ जाती थीं।
वो कई बार कह चुकी थीं—

“चंदन बेटा, उस हवेली से दूर रहना, वहाँ तेरे पिता को…!”
और वह वहीं रुक जाती थीं।

पिता की याद में हमेशा कुछ अधूरा था।
चंदन कभी नहीं समझ पाया कि माँ हवेली का नाम सुनकर क्यों काँप जाती हैं।

पर शर्त…
शर्त तो शर्त थी।

अँधेरा घिर चुका था।
हवेली सामने खड़ी थी—ऊँची, वीरान, और कभी-कभार हवा के झोंके से उसके टूटी खिड़कियाँ चीखती थीं।
बगीचे में आम का बड़ा, बुज़ुर्ग सा पेड़ खड़ा था।

चंदन ने कदम आगे बढ़ाए,
पर जैसे ही झाड़ियों को पार किया,
एक बहुत पुरानी याद की धुंध सामने आई।

उसे लगा जैसे कोई बुदबुदा रहा हो—

“मत आओ बेटा…”

उसने सिर झटका।
शायद उसका डर ही उसे आवाज़ें सुना रहा था।
वह पेड़ के पास पहुँचा और आम तोड़ने लगा।

एक…
दो…
तीन…
हर आम के साथ उसका डर भी थोड़ा बढ़ता जा रहा था।



जैसे ही वह सातवाँ आम तोड़ने जा रहा था—
पीछे से किसी के कदमों की आवाज़ आई।

चंदन का दिल बैठ गया।
वह धीरे-धीरे मुड़ा।

उसके सामने कोई बुज़ुर्ग खड़ा था—सफेद दाढ़ी, कमजोर कंधे… और आँखें भरी हुई।
लेकिन डरावनी नहीं।

बुज़ुर्ग ने थरथराती आवाज़ में कहा—

“क्यों बेटा… कोई शर्त लगाई है?”

चंदन ने घबराकर सिर हिलाया।
वह बूढ़ा मुस्कुराया—दुख भरी मुस्कान।

“हर साल कोई ना कोई बच्चा आता है…
दस आम तोड़ने की शर्त लेकर।
जैसे तुम आए हो… जैसे तेरे पिता आये थे।”

चंदन के पैरों से जमीन खिसक गई।

“मेरे… पिता?”

बुज़ुर्ग ने धीरे से कहा—

“हाँ।
वही शर्त जो आज तू लगा रहा है…
तेरे पिता ने भी लगाई थी।
और जब चौकीदार ने उन्हें भागते देखा था,
वह दीवार कूदते समय गिर गए थे…
सीधी चोट सिर पर…
और… और वो बच नहीं पाए।”

चंदन की आँखें भर आईं।
उसे लगा किसी ने उसकी दुनिया छीन ली हो।

“और तभी से…
तेरी माँ रोज़ हवेली की तरफ देख-देख आँसू बहाती थीं।
तू छोटा था… याद नहीं होगा।”



चंदन का हाथ काँपने लगा।
जेब में रखे आम जमीन पर गिर गए।

उसने धीमे से कहा,
“मैं… मैं तो बस साबित करना चाहता था कि…
मैं कायर नहीं हूँ।
मैं हारने वालों में नहीं हूँ।”

बूढ़े ने उसके कंधे पर हाथ रखा—
पहली बार किसी ने उसे उस नाम से नहीं, एक बेटे के रूप में देखा।

“बेटा… शर्तें आदमी को बहादुर नहीं बनातीं।
कभी-कभी… ये इंसान से उसकी साँसें भी छीन लेती हैं।”

चंदन फूट पड़ा।
उसके रोने में वह सारा बोझ था जो उसने सालों से अपने दिल में दबा रखा था—
लोकलड़ाई, साबित करने की जिद, और पिता के जाने का अनजाना दर्द।




उसने थैले में पड़े कुछ बच गए आम उठाए,
पर दस नहीं थे।
बस छह थे।

वह तेज कदमों से बाहर निकला।
आनंद और बाकी बच्चे उत्सुकता से उसका इंतजार कर रहे थे।

“आ गए आम?”
आनंद बोला।

चंदन ने गहरी सांस ली और कहा—

“हाँ…
लेकिन दस आम नहीं लाया।
आज मुझे समझ आ गया कि हर शर्त जीतना जरूरी नहीं होता।”

सब चुप हो गए।
आनंद ने हैरानी से पूछा—

“तू हार मान गया?”

चंदन हल्की मुस्कान के साथ बोला—

“नहीं…
आज मैंने पहली बार सही मायने में जीत हासिल की है।
मैंने वह गलती नहीं दोहराई…
जो मेरे पिता ने की थी।”

उस रात पहली बार लोग उसे “शर्तिया चंदन” नहीं बोले।
उसे “समझदार चंदन” कहा।

और शायद…
असल जिंदगी की यही सबसे बड़ी जीत होती है—
खुद को समझना।