अरजुन की सुबहें हमेशा एक ही रूटीन पर चलती थीं — पाँच बजे की हिम्मत, चाय की गंध और बेटी नैना की छोटी सी हँसी। नैना आठ साल की थी; उसके बाल हमेशा बोले-सीधी चोटी में बँधे रहते और हाथ में कोई किताब या पेंसिल रहती। अरजुन का दिन उसी दुपट्टे की कती हुई अबरलाइन्स की तरह सिमटा रहता — घर, फैक्ट्री, घर। फिर भी घर वापस लौटना उसके लिए किसी मंदिर की तरह था।
उस मंगलवार की सुबह कुछ अलग नहीं थी। रात के बचे हुए पराठों की खुशबू थी रसोई में — रविवार को बनी माँ सावित्री की कोशिशें जो हर किसी के पेट को सुकून देती थीं। नैना स्कूल के लिए जल्दी उठ गयी। सावित्री ने दूध गर्म किया, नैना ने जल्दी-जल्दी टोपी पहन ली। अरजुन ने जेब में पिक-अप की चाबी रख ली, और जैसे ही वह हथेली से नैना का प्यार भरा हाथ छुड़ा रहा था, उसकी फोन पर फैक्ट्री का मैनेजर कॉल आ गया — मशीन की ओवरहॉल रिपोर्ट में कुछ उछलता हुआ नोटिस, दो मिनट का सवाल-जबाव। अरजुन ने कॉल उठा ली, मैनेजर की आवाज शांत से घबरा गई थी — "अरजुन, आज़ी का शेड्यूल बदल जाएगा, तुम आओ तो सही।"
फैक्ट्री की जिम्मेदारी उसके कंधों पर थी, घर की जिम्मेदारी उसके दिल पर। वह कॉल में उलझा रहा। सावित्री ने पीछे खिड़की से देखा — अरजुन फोन पर बात कर रहा था, नैना ने अपनी स्कूल बैग को दोबारा नचाया। चाय का मग सिंक में रखा था, धीमी सी धुआँ-सी गंध रसोई में थी — दूध वहीँ रह गया था जो सुबह गरम किया गया था; गैस की नली के पास हल्की सी खुश्क-सी आवाज़ भी थी, पर वे हर सुबह इस खटपट को नज़रअंदाज़ कर देते थे।
"जल्दी चलो, बेबी, स्कूल बस आ रही है," अरजुन ने फोन के कंधे पर दबा कर कहा। उसने एक आखिरी बार घर के अंदर देखा — नैना ने एक पल के लिए मुँह से चावल के दाने झाड़े, सावित्री ने किसी चीज़ पर मुस्कुराकर सिर हिलाया। अरजुन ने जूते पहने और दरवाज़ा बंद करते हुए गैस के स्विच पर ध्यान ही नहीं दिया; वह हमेशा करता आया था — दूध गर्म करके गैस मंद कर देना — लेकिन उस दिन मन कहीं और था: बजट, ओवरटाइम, मैनेजर की तीखी आवाज़ें।
बस वही दो मिनट की जरा-सी भटकन।
बस वह वही दो मिनट, जिनमें नियम और आदतें टूट कर मिलीं।
जैसे ही अरजुन कार में बैठा, उसने अपनी जेब में घड़ी देखी — बस टाइम था 8:05 — फैक्ट्री देर हो रही थी। उसने फोन पर मैनेजर से वादा कर दिया कि वह तुरंत पहुंचता है। उसने पीछा करते हुए घर की ओर आखिरी नज़र डाली — पर इस नज़र में कोई चिंता नहीं थी।
फैक्ट्री की गहमा-गहमी में अरजुन कुछ घंटे काम करता रहा। दोपहर के लगभग तीन बजे तक ही उसे लगा था कि सुबह की सब कुछ ठीक रहा। तभी उसकी गेगन ने आवाज़ दी — पड़ोस में कोहरे की तरह कुछ गड़बड़ थी। एक सहकर्मी ने संदिग्ध आवाज़ सुनी — "कहीं से अचानक धुआँ आ रहा था क्या?" लोग बाहर दौड़े। किसी ने पुलिस और फायर ब्रिगेड को बुलाया।
जब वे वापस पहुँचे, तो अरजुन का दिल एकदम से जम गया — उसकी गली के दिखाई देने वाले घर से बाहर निकलती भीड़, लोग रो रहे थे, बच्चे चीख रहे थे। उसने दौड़ लगाई और देखा — उसकी खुद की छतियारी रसोई से काली-सी धुंआ निकल रही थी। फायरमैन ने उसे रोका, पर अरजुन के सामने जो कुछ हुआ वह शब्दों में बयाँ नहीं हो सकता। सावित्री और नैना—दोनों ही... उनकी देहें धुँए में ढँकी हुई थीं। नैना का स्कूली बैग झुलसा पड़ा था, उसकी छोटी वाली चोटी राख में बदली हुई थी। अरजुन की दुनिया एक छीन लेता हुआ उजड़ गया।
उस रात के बाद अरजुन के जीवन में समय दो हिस्सों में बँट गया — 'पहले' और 'बाद'। "पहले" में जो दिन थे, वे जीवन से भरे थे; "बाद" में केवल कानों में गूंजती वह आवाज़ थी — मैनेजर का फोन, उसकी खुद की आखिरी नजर, वह स्विच।
पुलिस ने कहा — एक लीक, गैस का रिसाव और चिकना सा चिंगारी। फायर रिपोर्ट ने लिखा — "मानव चूक।" शब्द सख्त और निर्जीव थे, पर अरजुन ने उन्हें अपने सीने पर ऐसे ठोंक दिया जैसे किसी ने उसके दिल को काट लिया हो।
गांव के लोग आए। कुछ ने संवेदना जताई, कुछ ने उँगलियाँ उठाईं। "कितनी लापरवाही थी," किसी ने कहा। "अगर वह थोड़ी देर और रहती तो..." कोई नहीं जानता कि कड़वा सच किसे पचाना होता है। सावित्री के माता-पिता ने अरजुन को कोसा, पर उनकी आँखों में जो दर्द था — वह किसी भी शब्द से बड़ा था।
अरजुन के अंदर एक आवाज़ लगातार बोलती रही — "वो दो मिनट..." वह दो मिनट जिसे वह फैक्ट्री के मैनेजर के लिए खोता था, जिसने उसे सबसे कीमती चीज़ से वंचित कर दिया। रात-रात भर वह अपना चेहरा दीवार पर मारता, अपना पेट पकड़ कर रोता, और अपने हाथों को देखता — वे हाथ जिनसे उसने कभी घर के लिए प्यार और सुरक्षा दी थी — अब वे हाथ अपराधी लगते थे।
समय कुछ घाव भर देता है, पर निशान गायब नहीं होते। अरजुन ने घर बेचा नहीं — कैसे बेचता जो उसकी गलतियों का प्रमाण था? पर वह घर नहीं छोड़ सका, क्योंकि उसी घर की दीवारों में नैना की हँसी की गूँज अभी भी रहती थी। उसने उस दीवार पर हर दिन नैना के लिए एक छोटा-सा फूल चिपकाया, और हर रविवार को पड़ोस के बच्चों को सुरक्षा के नियम सिखाना शुरू किया — खाना बनाते समय गैस स्विच चेक करो, बच्चों को अकेला न छोड़ो, छोटे-छोटे सावधानी के चेकलिस्ट।
लोग कहते — अदालत ने उस पर जुर्माना लगाया, बीमा ने कुछ रकम दी, पर अरजुन ने उस धन को लौटा दिया क्योंकि पैसे से नैना की हँसी वापस नहीं आती थी। वह हर महीने एक छोटी सी निधि भी बनाता — "नैना स्मृति सुरक्षा कोष" — ताकि किसी और मां-बाप को वही दर्द न सहना पड़े। वह स्कूलों में जाकर अपनी कहानी सुनाता — अपनी गलती की सच्ची सज़ा के साथ। उसकी आवाज़ कांपती, आँखें नम रहतीं; बच्चे उसे बड़े ध्यान से सुनते।
एक दिन एक छोटी-सी बच्ची उसकी और आई और बोली — "क्या पापा ने कभी आपकी गलती माफ़ कर दी?" अरजुन ने ठंडी साँस ली और जवाब दिया — "माफ़... नहीं। पर मैं हर रोज़ उस गलती का हिसाब देता हूँ। मैं उसे अपने काम में बदल देता हूँ — चेतावनी, शिक्षा, और नियम।"
कई लोग उसे पागल कहते रहे, कुछ ने उसकी प्रशंसा की। पर अरजुन को कोई पुरस्कार नहीं चाहिए था। उसकी सच्ची शांति शायद तब मिली जब उसने देखा कि पास के मोहल्ले में एक और माँ सुबह-सुबह दो बार गैस का स्विच चेक कर रही थी, जब उसने देखा कि एक बच्चा अब रसोई में अकेला नहीं छोड़ा जाता, और जब एक स्कूल ने उसकी निधि से सुरक्षा अलार्म लगाए।
नैना उसकी आँखों में हर रोज़ रही — उसकी एक गलती ने जीवन छीन लिया, पर उसी गलती ने उसे ज़िम्मेदारी का नया चेहरा भी सिखा दिया। हर बार जब वह किसी को सिर आपस में पकड़ कर बोलता — "एक छोटी सी भूल, एक जीवन ले सकती है" — उसकी आवाज़ में पेन और दया दोनों होते।
कहानी का अंत खट्टा है — उस भूल का परिणाम लौट कर नहीं आता। पर अरजुन ने सीखा कि गलतियों को स्वीकार कर, उन्हें दूसरों की सीख बनाते हुए, इंसान कुछ हद तक अपने अतीत के बचे-खुचे को ठीक कर सकता है। नैना अब नहीं लौटेगी, पर उसकी याद में लगाई गई छोटी-छोटी चेतावनियाँ—सावधानी के वो पोस्टर, वो अलार्म, वो स्कूल क्लास—किसी और परिवार की धड़कनें बचा रही थीं।
किसी रात जब अरजुन नहीं सो पाता, वह झूठे तरीके से खुद को सज़ा देता है — पर सुबह होते ही वह उठता है, और फिर एक और स्कूल में जाता है, एक और मोहल्ले में जाकर बताता है, और एक और बच्चे की आँखों में उम्मीद बनाता है। उसका जीवन अब दया के कामों में कटता है — और यही उसकी सज़ा भी, और यही उसकी प्रायश्चित।
कभी-कभी गलती जानलेवा होती है — और उससे बड़ा दर्द शायद यही है कि वह बेमनाही, सिर्फ़ एक मुस्कुराहट की कमी या दो मिनट की भटकन की वजह से हो जाती है। कहानी हमें यही सिखाती है कि छोटी-छोटी सावधानियाँ ज़िंदगी बचाती हैं — और अगर किसी ने गलती की है, तो सबसे बड़ी जिम्मेदारी वही है कि वह गलती किसी और से ना दोहरने दे।