🌕 छुपा हुआ इश्क़ — एपिसोड 10शीर्षक: अंतिम साक्षात्कार
(जब रूह खुद से मिलती है)1. प्रातः का मौन — स्मृतियों का किनारावाराणसी का आसमान धुंध से ढका था, पर गंगा का पानी अजीब तरह से चमक रहा था।
सुरभि घाट की सीढ़ियों पर बैठी थी, हाथ में वही पुराना ताबीज लिए — तीन वृत और अधखिला कमल।
अब यह चिन्ह बस प्रतीक नहीं था, बल्कि पूरी यात्रा की यादें समेटे हुए था।उसने आँखें बंद कीं और हवा में फुसफुसाई,
“रत्नावली, माया, आर्या, जवेन, आर्यवीर… तुम्हारी कथा मैंने जिया, अब उसे लिखने की घड़ी है।”पीछे से अयान की आवाज़ आई, “क्या तुम वाकई इसे सबके सामने लाना चाहती हो?”
वह मुस्कराई, “हाँ, शायद अब यह कहानी सिर्फ़ मेरी नहीं रही — यह हर आत्मा की है जो प्रेम में खुद को खोजती है।”2. कथा का लेखन — प्रेम का दस्तावेज़शाम तक सुरभि ने पुराने पन्नों, नोट्स और दृश्यों को जोड़ते हुए एक पुस्तक का रूप देना शुरू किया।
शीर्षक था — “छुपा हुआ इश्क़: जब आत्मा पुनर्जन्म लेती है।”हर अध्याय में उसने अपने पिछले जन्मों की झलक रखी —
मंदिर का रहस्य, जवेन का अमर अभिशाप, योगिनी का संदेश, और वह अदृश्य रेखा जो समय को पार करती रही।एक पंक्ति उसने धीरे से लिखी—
“प्रीति जब रूह बन जाती है, तब वह शरीर और समय दोनों से स्वतंत्र हो जाती है।”अयान उसके बगल में बैठा था, कैमरा बंद, आँखें गंगा की तरफ़। उसने कहा,
“यह किताब उन सबके लिए होगी जिन्हें लगता है कि प्रेम सिर्फ़ एक घटना है।”
सुरभि ने उत्तर दिया,
“नहीं, यह किताब समझाएगी कि प्रेम स्वयं ईश्वर की एक वाणी है — जो हर जन्म की भाषा में गूँजती है।”3. अतीत की प्रतिध्वनि — जवेन की अंतिम छायारात के तीसरे प्रहर में जब मंदिर की घंटियाँ बजीं, वही हवा वापस लौटी जो वर्षों पहले आत्मा-विकर के समय चली थी।
दीवारों पर अचानक कुछ शब्द चमके —
“प्रेम का अंत तब होता है जब द्वेष अपने आप मिट जाता है।”फिर पास के दीपक की लौ में धुआँ उठने लगा।
उस धुएँ में जवेन का आधा चेहरा उभरा — अब उसमें न घृणा थी न अभिशाप, बस शांति।“तुम जीत गईं, रत्नावली,” वह धीमे स्वर में बोला।
सुरभि ने आँखें बंद कीं और कहा,
“नहीं जवेन, मैंने कुछ नहीं जीता। हमने सब सीखा — कि प्रेम से बड़ा कोई युद्ध नहीं और प्रेम से गहरा कोई अंत नहीं।”धुएँ में जवेन की आकृति मुस्कराई और विलीन हो गई।
मंदिर की दीवारों पर अब केवल दीपक की मद्धम आभा थी।4. आत्माओं की सभा — प्रकाश का पुनर्जन्मसपने और जागरण का अंतर मिट गया था।
सुरभि ने देखा— वह किसी सुनहरे दायरे में है जहाँ समय का कोई अर्थ नहीं।
चारों ओर सौम्य प्रकाश था, और उसके भीतर घूमती आत्माओं की महक —
रत्नावली, आर्या, माया, योगिनी और बेसुरे रूप में जवेन की छाया तक।सभी उसे देख रहे थे।
रत्नावली आगे बढ़ी, “हर जन्म में मैं प्रेम को अधूरा समझती थी।”
माया ने कहा, “और अधूरापन मुझे फिर लौटाता था।”
आर्या ने फुसफुसाया, “पर इस जन्म में हमने समझा — प्रेम को पूरा करने की ज़रूरत नहीं, उसे जीने की ज़रूरत है।”योगिनी की वाणी गूँजी,
“और अब, जब आत्मा ने खुद को पहचान लिया है, तो यह चक्र समाप्त होता है।
समय अब तुम्हें नहीं बाँधेगा, सुरभि। तुमने अपनी आत्मा का पुनर्लेख कर लिया है।”प्रकाश और बढ़ा, और सब आत्माएँ धीरे-धीरे मिलकर एक ही ऊर्जा में विलीन हो गईं —
गंगा की तरह शांत, आकाश की तरह अनंत।5. अगले दिन — मौन का संकल्पसुबह के पहले उजाले में गंगा का पानी चाँदी-सा चमक रहा था।
घाट पर आरती की ध्वनि थी, भीड़ थी, पर सुरभि अकेली थी।
उसने अपनी डायरी बंद की, उस पर ताबीज रखा और फुसफुसाई,
“अब यह सब तुम्हारे हवाले, समय।”अयान ने उसके पास आकर पूछा,
“अब क्या? क्या यह सब प्रकाश ही अंत है?”
सुरभि ने हल्का मुस्कराते हुए कहा,
“नहीं, अब यह प्रकाश किसी और के अंधेरे तक पहुँचेगा।
कभी न कभी, कोई और इस मंदिर में आएगा और फिर वही कहानी शुरू होगी — बस अलग रूप में।”वे दोनों कुछ देर तक मौन रहे।
फिर अयान ने बुदबुदाया,
“तो सच में यह कथा अनंत है?”
सुरभि बोली,
“हाँ, क्योंकि प्रेम अनंत का दूसरा नाम है।”6. अंत का आलोक — आत्मा का विलयनशाम ढलने लगी।
आकाश पर नीला और सुनहरा रंग मिल रहा था।
मंदिर के गर्भगृह में मोमबत्ती अपने आप जल उठी —
और दीपक की लौ से उठती लहरों में सुरभि की परछाई पिघलने लगी।वह धीरे-धीरे गंगा की ओर बढ़ी।
हर कदम के साथ उसके पैरों के नीचे चमकदार प्रतीक उभरते गए — जैसे रत्नावली युग की आत्माएँ फिर से उसे विदा देने आई हों।उसने अंतिम बार पीछे देखा —
अयान ने मुस्कराकर सिर झुकाया।
“जा रही हो?” उसने पूछा।
सुरभि बोली,
“नहीं, बस लौट रही हूँ — वहाँ, जहाँ प्रेम की शुरुआत हुई थी।”गंगा की रौशनी में उसकी आकृति धीरे-धीरे धुँधली होती गई।
हवा में वही आखिरी स्वर गूँजा —
“प्रेम का वादा मृत्यु से नहीं टूटा… क्योंकि प्रेम, मृत्यु का कारण ही नहीं जानता।”लहरें थम गईं, दीपक की लौ स्थिर हो गई।
और मंदिर के ऊपर हल्की नीली रेखा आसमान में खिंच गई — जैसे आत्मा का अंतिम हस्ताक्षर।7. अनंत मौन — कथा का समापनकई वर्ष बाद, बनारस विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में एक शोध-छात्रा ने एक पांडुलिपि पाई।
शीर्षक था — “छुपा हुआ इश्क़।”
अंदर लिखा था —“यह कथा एक मंदिर, एक प्रेम और एक रूह की है,
जो हर जन्म में खुद को पहचानती रही,
जब तक उसने यह नहीं समझ लिया कि प्रेम कोई घटना नहीं, बल्कि अस्तित्व का कारण है।”छात्रा ने वह किताब धीरे से बंद की।
खिड़की से बाहर गंगा की लहरें चमक रहीं थीं,
और हवा में हल्की फुसफुसाहट उभरी —“हर आत्मा जो प्रेम में विश्वास करती है,
वह रत्नावली की कहानी का एक और जीवन लिख रही होती है।”दीपक की अंतिम लौ बुझ गई।
पर उसकी गंध अब भी हवाओं में थी —
प्रेम, पुनर्जन्म और आत्मा के उस शाश्वत मिलन की,
जो समय से परे, शब्दों से आगे, और मृत्यु से भी पार है।(एपिसोड समाप्त — “छुपा हुआ इश्क़” की अंतिम उपसंहार कथा)