once again in Hindi Motivational Stories by Vijay Sharma Erry books and stories PDF | एक बार फिर

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एक बार फिर

एक बार फिर 
लेखक: विजय शर्मा एरी
(शब्द संख्या: लगभग १५००)
सूरज की किरणें खिड़की के पर्दों को चीरती हुई कमरे में घुसीं, लेकिन उनके चेहरे पर मुस्कान नहीं लाईं। रमेश की आँखें सूजी हुई थीं, जैसे रात भर की बेचैनी ने उन्हें निगल लिया हो। बिस्तर पर लेटे हुए वह छत को निहार रहा था, जहाँ कभी उसके सपनों के चित्र उकेरे जाते थे। अब वहाँ सिर्फ खालीपन था। बाहर सड़क पर बच्चों की हँसी की आवाज़ें आ रही थीं, लेकिन रमेश के कानों में सिर्फ़ वही पुरानी गूँज बज रही थी—डॉक्टर की ठंडी, कठोर आवाज़: "मिस्टर शर्मा, आपका किडनी फेलियर एडवांस्ड स्टेज पर है। ट्रांसप्लांट ही एकमात्र रास्ता है। लेकिन डोनर मिलना मुश्किल है।"
रमेश ने आँखें बंद कीं। पैंतालीस साल की उम्र में वह टूट चुका था। कभी शहर की सबसे बड़ी आईटी कंपनी में प्रोजेक्ट मैनेजर, जहाँ लोग उसकी तारीफ़ में नई-नई भाषाएँ गढ़ते थे। अब वह घर पर पड़ा था, नौकरी छूट चुकी थी, बीवी सुनीता रोज़ सुबह सब्जी लाने जाती और शाम को थकी-हारी लौटती। बेटा अजय, बीस साल का, कॉलेज में पढ़ता था, लेकिन अब पार्ट-टाइम जॉब करता था ताकि घर का खर्च चल सके। और बेटी नेहा, सोलह साल की, स्कूल से लौटते ही माँ के कंधे पर सिर रखकर रो लेती।
"पापा, आज स्कूल में टीचर ने कहा कि मैं डिबेट कॉम्पिटिशन में पार्टिसिपेट करूँ। लेकिन..." नेहा की आवाज़ रुंधी हुई थी कल रात। रमेश ने उसे गले लगा लिया था, लेकिन उसके अपने आँसू रोक न सका। "बेटा, तू ज़रूर जीतेगी। पापा को बस थोड़ा और वक़्त चाहिए। एक मौका और..."
एक मौका। ये शब्द उसके दिमाग़ में घूम रहे थे। बचपन से ही रमेश को मौक़े पसंद थे। गाँव के स्कूल में, जहाँ किताबें कम और सपने ज़्यादा थे, वह रात भर जागकर पढ़ता। "एक मौका मिला तो उड़ान भरूँगा," वह सोचता। शहर आया, नौकरी पाई, शादी की, बच्चे हुए। हर मौक़े को उसने पकड़ लिया। लेकिन अब? ये बीमारी ने सब छीन लिया। दवा के पैसे, इलाज़ का खर्च—सब कुछ एक गहरे कुएँ में गिर गया। सुनीता ने अपना गहना बेच दिया, अजय ने अपनी स्कूटी बेच दी। फिर भी, डोनर की लिस्ट में रमेश का नाम नम्बर ४७ पर अटका था।
सुबह के दस बजे थे। सुनीता ने चाय का कप उसके पास रखा। "रमेश, आज हॉस्पिटल चलें? डॉक्टर साहब ने कहा था कि चेकअप ज़रूरी है।" उसकी आवाज़ में थकान थी, लेकिन आँखों में वही जज़्बा जो बीस साल पहले शादी के मंडप में था। रमेश ने सिर हिलाया। उठा, तैयार हुआ। बाहर कार में बैठते हुए नेहा ने कहा, "पापा, मैं स्कूल से सीधे आऊँगी। शाम को स्टोरी सुनाओगे न?" रमेश ने मुस्कुराने की कोशिश की। "हाँ बेटा, वो वाली स्टोरी जिसमें हीरो आख़िर में जीत जाता है।"
हॉस्पिटल पहुँचकर वेटिंग रूम में बैठे। चारों तरफ़ बीमारों की कतारें। एक बूढ़ा आदमी अपनी बेटी के कंधे पर सिर झुकाए रो रहा था। एक माँ अपने बच्चे को गोद में लिए डॉक्टर से गिड़गिड़ा रही थी। रमेश का दिल भर आया। "सुनीता, ये ज़िंदगी कितनी क्रूर है। हमने तो कभी किसी को तकलीफ़ नहीं दी, फिर ये?"
सुनीता ने उसका हाथ थामा। "रमेश, याद है? हमारी शादी के पहले साल, जब तू जॉब के लिए इंटरव्यू में फेल हो गया था। सबने कहा था, 'छोड़ दो, दूसरी कोशिश करो।' लेकिन तूने कहा था, 'एक मौका और।' और देख, आज हम यहाँ हैं। भगवान् कुछ तो सोचेंगे।"
डॉक्टर के केबिन में घुसते ही रिपोर्ट्स दिखाईं। "मिस्टर शर्मा, आपकी कंडीशन स्टेबल है, लेकिन डायलिसिस अब हफ्ते में तीन बार हो जाएगी। डोनर सर्च जारी रखिए।" रमेश ने सिर झुका लिया। बाहर आते हुए उसकी नज़र एक पोस्टर पर पड़ी: "अपना ब्लड ग्रुप चेक करवाएँ। आप किसी की ज़िंदगी बचा सकते हैं।" उसके मन में एक हलचल हुई। "सुनीता, क्या तू अपना टेस्ट करवा सकती है? मेरा ब्लड ग्रुप O पॉज़िटिव है।"
सुनीता ने हामी भरी। टेस्ट हुआ। रिज़ल्ट नेगेटिव। "मेरा A पॉज़िटिव है," वह बोली, लेकिन उसकी आँखें नम थीं। "कोई बात नहीं, अब अजय का करवाते हैं।" घर लौटे तो अजय इंतज़ार कर रहा था। "पापा, आज जॉब पर प्रमोशन की बात हुई। लेकिन मैंने मना कर दिया। पहले तुम ठीक हो जाओ।" रमेश का गला भर आया। "बेटा, तू अपना करियर मत बिगाड़। पापा को एक मौका और चाहिए, बस।"
अगले हफ्ते अजय का टेस्ट। पॉज़िटिव मैच! लेकिन डॉक्टर ने कहा, "बेटे की किडनी से फादर को ट्रांसप्लांट रिस्की है। उम्र का फ़र्क़, इम्यून सिस्टम—सक्सेस रेट सिर्फ़ ६० प्रतिशत। सोच लो।" अजय ने तुरंत कहा, "पापा, मैं तैयार हूँ। आपने मुझे ज़िंदगी दी, अब मैं आपको दूँगा।" रमेश रो पड़ा। "नहीं बेटा, तू अभी जवान है। तेरी ज़िंदगी में कितने सपने बाकी हैं। आईटी इंजीनियर बनना, शादी करना, बच्चे..."
लेकिन अजय अड़ा रहा। घर में बहस छिड़ गई। सुनीता रोई, नेहा चुपचाप कोने में बैठी रही। रात को रमेश अकेला छत पर गया। तारों को देखा। "भगवान्, एक मौका और दे दो। मेरे बच्चों को मत छीनो।" हवा में एक हल्की सी सिसकी सुनाई दी। नीचे नेहा खड़ी थी। "पापा, मैं डर रही हूँ। अगर अजय भैया को कुछ हो गया तो?"
रमेश ने उसे गले लगा लिया। "बेटा, ज़िंदगी ऐसे ही है। कभी हँसाती है, कभी रुलाती। लेकिन हार मत मानना। याद है, वो स्टोरी जो मैं सुनाता था? 'छोटा राजा और जादुई पेड़'। राजा बीमार पड़ गया, लेकिन उसके दोस्त ने अपना दिल दाँव पर लगाया। आख़िर में सब ठीक हो गया।" नेहा मुस्कुराई। "हाँ पापा, लेकिन असल ज़िंदगी में जादू कहाँ?"
"जादू इंसान के हौसले में होता है, नेहू।" रमेश ने कहा। उस रात वह सो न सका। सुबह उठा तो फैसला ले चुका था। हॉस्पिटल गया, अकेले। डॉक्टर से बोला, "ट्रांसप्लांट कैंसल। मैं डायलिसिस पर रहूँगा। अजय को मत छुओ।" डॉक्टर ने आश्चर्य से देखा। "लेकिन मिस्टर शर्मा, ये खतरनाक है। आपकी उम्र..."
"मैं जानता हूँ। लेकिन मेरे बेटे की ज़िंदगी ज़्यादा कीमती है।" घर लौटकर सबको बताया। सुनीता टूट गई। अजय चिल्लाया, "पापा, ये क्या बकवास है? आप मर जाएँगे!" नेहा चुपचाप रोती रही। घर में सन्नाटा पसर गया। दिन बीतने लगे। डायलिसिस के सेशन लंबे हो गए। रमेश कमज़ोर पड़ता गया, लेकिन मुस्कुराता रहा। नेहा को स्टोरीज़ सुनाता, अजय को करियर की सलाह देता। सुनीता के लिए छोटे-छोटे सरप्राइज़ प्लान करता—एक फूल, एक चिट्ठी।
एक शाम, जब सूरज ढल रहा था, डोरबेल बजी। बाहर एक अजनबी खड़ा था—एक मध्यम आयु का आदमी, चेहरे पर घाव के निशान। "मैं राकेश शर्मा हूँ। आपका दूर का रिश्तेदार।" रमेश हैरान। "रिश्तेदार? मुझे याद नहीं।" राकेश अंदर आया। बैठा। आँखें नम। "भाई साहब, सालों पहले गाँव में हम साथ खेलते थे। आपने मेरी मदद की थी। मेरी माँ बीमार थी, दवा के पैसे नहीं थे। आपने अपना जेबखर्च दिया। तब से मैं शहर चला गया। आज सुबह मुझे पता चला आपके बारे में। एक दोस्त ने बताया।"
रमेश की आँखें चौड़ी हो गईं। "वो... वो तो भूल चुका था।" राकेश ने हाथ बढ़ाया। "मेरा ब्लड ग्रुप O पॉज़िटिव है। टेस्ट करवा लिया। मैच हो गया। मैं डोनर बनूँगा।" कमरे में सन्नाटा। फिर सुनीता की सिसकी। अजय ने राकेश को गले लगा लिया। नेहा चिल्लाई, "अंकल, आप जादूगर हो!" रमेश रो पड़ा। "राकेश, ये... ये कैसे?"
"भाई साहब, ज़िंदगी का हिसाब तो चुकता करना पड़ता है। आपने मुझे एक मौका दिया था। अब मैं आपको दे रहा हूँ। एक मौका और।"
ट्रांसप्लांट की तारीख तय हुई। हॉस्पिटल में ऑपरेशन थिएटर के बाहर सुनीता प्रार्थना कर रही थी। अजय नेहा को संभाल रहा था। घंटों बीते। फिर डॉक्टर बाहर आया। मुस्कुराता हुआ। "सक्सेसफुल! दोनों ठीक हैं।"
रिकवरी का समय लंबा था। रमेश बिस्तर पर लेटा, लेकिन अब आँखों में चमक थी। राकेश रोज़ आता, पुरानी बातें करता। "भाई साहब, गाँव में आज भी लोग आपकी कहानियाँ सुनाते हैं। वो लड़का जो रात भर पढ़ता, जो दोस्तों के लिए जान दे देता।" रमेश हँसा। "अब तो बूढ़ा हो गया।"
"नहीं भाई, आप हीरो हो।" राकेश बोला।
घर लौटने पर नेहा का डिबेट कॉम्पिटिशन था। रमेश पहली बार व्हीलचेयर पर स्टेज के पास बैठा। नेहा ने टॉपिक लिया: "ज़िंदगी में हार मत मानो।" उसकी आवाज़ में वही जज़्बा था जो उसके पिता का। "मेरे पापा बीमार पड़े, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। एक अनजान दोस्त ने उन्हें नया जीवन दिया। ये साबित करता है कि अच्छाई लौटकर आती है। एक मौका और—यही ज़िंदगी का मंत्र है।"
नेहा जीती। तालियाँ गूँजीं। रमेश की आँखें भर आईं। घर लौटकर सबने मिलकर डिनर किया। अजय ने कहा, "पापा, अब आपकी बारी। अपनी स्टोरी लिखिए। दुनिया को बताइए।" रमेश ने सिर हिलाया। "हाँ बेटा, लिखूँगा। 'एक मौका और'—ये मेरी कहानी बनेगी।"
महीनों बाद, रमेश पूरी तरह ठीक हो चुका था। नई नौकरी मिली, फ्रीलांस कंसल्टेंट की। सुनीता ने अपना छोटा बिज़नेस शुरू किया—होममेड पिकल्स। अजय ने ग्रेजुएशन पूरा किया, नेहा ने बोर्ड में टॉप किया। राकेश अब परिवार का हिस्सा बन गया। हर रविवार शाम को चाय की महफ़िल सजती।
एक शाम, रमेश ने डायरी निकाली। कलम उठाई। "ज़िंदगी ने मुझे सिखाया—मौक़े खुद नहीं आते, उन्हें बनाना पड़ता है। हार के बाद भी उठना पड़ता है। क्योंकि हर अंत के बाद एक नई शुरुआत होती है। एक मौका और... बस इतना ही चाहिए।"
बाहर बारिश हो रही थी। धरती सुगंधित हो रही थी। रमेश ने कलम रखी। मुस्कुराया। ज़िंदगी फिर से हरी हो चली थी।
(शब्द संख्या: १४९८। यह कहानी भावुकता और प्रेरणा से भरी है, जहाँ पारिवारिक बंधन, बलिदान और अप्रत्याशित मदद के माध्यम से जीवन की सकारात्मकता उभरती है। उम्मीद है, यह पाठकों के दिल को छू लेगी।)