Naina Khan
सपनों की दुनिया से शब्दों का सफ़र तय करती एक लेखिका, जो हर एहसास को अपने लफ़्ज़ों में ढालना जानती हैं।
हर कहानी उनके दिल का एक टुकड़ा होती है, और हर किताब एक ऐसा दरवाज़ा, जो पाठकों को उनकी कल्पनाओं की दुनिया में ले जाता है।
वो मानती हैं कि जज़्बातों को अगर सही लफ़्ज़ मिल जाएं, तो वो सिर्फ़ पढ़े नहीं जाते — महसूस किए जाते हैं।
अपने ख्वाबों को काग़ज़ पर उतारना उनके लिए इबादत है, और हर पन्ना उनके अंदर की आवाज़ का अक्स।
*अध्याय 2: दरवाज़े के उस पार* — जहाँ वक़्त की चाल बदल जाती है और हर क़दम एक इम्तिहान बन जाता है।
---
*अध्याय 2: दरवाज़े के उस पार*
_“जो दिखता है, वो होता नहीं… और जो होता है, वो समझ में तब आता है जब बहुत देर हो चुकी होती है।”_
रिंसी की हालत देखकर मेरी रूह काँप गई। उसके कपड़े फटे हुए थे, चेहरा ज़ख़्मी, और आँखों में ऐसा डर था जो किसी ने बरसों से देखा हो। लेकिन सबसे अजीब बात ये थी—उसने कहा _"पाँच महीने"_ और मुझे तो अभी _पाँच मिनट_ ही हुए थे।
मैंने काँपते हुए पूछा, "क्या हुआ वहाँ?"
उसने धीमी आवाज़ में कहा, "वो दरवाज़ा एक रास्ता नहीं... एक जाल है। जो उसमें क़दम रखता है, वक़्त की पकड़ से बाहर चला जाता है। वहाँ हर चीज़ खूबसूरत लगती है, लेकिन वो सिर्फ़ एक परत है। उसके नीचे है अंधेरा, धोखा और मौत।"
मैंने पीछे देखा—वो दरवाज़ा अब भी खुला था। लेकिन उस पार की दुनिया बदल चुकी थी। अब वहाँ हरियाली नहीं थी, बल्कि धुंध थी। झरना सूख चुका था, और पेड़ जैसे जल चुके हों। मैं समझ गई, मेरे दोस्त अब उस दुनिया में फँस चुके हैं।
रिंसी ने बताया, "हम सब बहुत खुश थे पहले। आरव तो उस झरने के पास बैठा था, दानिश ने एक गुफा देखी और उसमें चला गया। मेहर को एक चमकता हुआ पत्थर मिला, और वो उसे उठाने गई। लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गए, सब कुछ बदलता गया। झरना ज़हर बन गया, पेड़ों से आवाज़ें आने लगीं, और रास्ता... रास्ता जैसे हमें निगलने लगा।"
"फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा।
"एक-एक करके सब मरे। आरव को पानी ने खींच लिया, दानिश गुफा में गया और फिर कभी नहीं लौटा। मेहर पत्थर को छूते ही पत्थर बन गई। और मैं... मैं भागती रही। हर दिन एक नया डर, हर रात एक नई सज़ा। वहाँ वक़्त नहीं चलता, वहाँ सिर्फ़ इंतज़ार होता है—मरने का।"
मैंने उसकी आँखों में देखा—वो अब भी उस दुनिया में थी, भले ही शरीर यहाँ था।
तभी मैनेजर फिर आया। उसकी साँसें तेज़ थीं, चेहरा पसीने से भीगा हुआ। "तुमने दरवाज़ा फिर से खोला? अब वो तुम्हें भी बुलाएगा।"
"कौन?" मैंने पूछा।
उसने कहा, "वो जो उस दरवाज़े के पीछे रहता है। एक आत्मा नहीं, एक भूख है। जो हर साल पाँच लोगों को बुलाती है। और जो वापस आता है, वो कभी पहले जैसा नहीं रहता।"
मैंने रिंसी की तरफ़ देखा। उसकी आँखें अब खाली थीं।
"अब क्या होगा?" मैंने पूछा।
मैनेजर ने कहा, "अब तुम्हें जाना होगा... अगर तुम अपने दोस्तों को बचाना चाहती हो। लेकिन याद रखना, वहाँ हर चीज़ तुम्हें धोखा देगी। और अगर तुमने डर दिखाया, तो तुम भी वहीं रह जाओगी... हमेशा के लिए।"
मैंने अपनी साड़ी का पल्लू कसकर थामा। दरवाज़े की तरफ़ देखा। और एक आख़िरी साँस लेकर कहा:
_"मैं जाऊँगी। लेकिन मैं अकेली नहीं लौटूँगी।"_
---
अगले अध्याय में:
*अध्याय 3: वक़्त का जाल* – जहाँ हर पल एक पहेली है, और हर जवाब एक क़ुर्बानी।