✍️ लेखिका परिचय — Naina Khan
मैं Naina Khan हूँ — एक लेखिका, जो अपने ख्वाबों को लफ़्ज़ों में ढालकर ज़िंदगी की कहानियाँ बुनती है।
मेरे लिए लिखना सिर्फ़ एक कला नहीं, एक एहसास है। हर शब्द जो मैं काग़ज़ पर उतारती हूँ, वो मेरी रूह का हिस्सा होता है।
मैंने ज़िंदगी को उसकी ख़ामोशियों में महसूस किया है — पहाड़ों की ठंडी हवा, रिश्तों की उलझनें, और वक़्त की चाल को अपनी कहानियों में पिरोया है।
मेरी कहानियाँ रहस्य से भरी होती हैं, लेकिन उनके भीतर एक गहराई होती है — जो दिल को छूती है और सोच को झकझोर देती है।
"दरवाज़ा: वक़्त के उस पार" मेरी कल्पना और अनुभव का संगम है — एक ऐसी दुनिया जहाँ हर दरवाज़ा एक इम्तिहान है, और हर किरदार अपने डर से लड़ता है।
मैं मानती हूँ कि कहानियाँ सिर्फ़ पढ़ी नहीं जातीं — वो महसूस की जाती हैं।
और अगर एक पाठक मेरी कहानी पढ़कर थोड़ी देर के लिए अपनी दुनिया भूल जाए… तो मेरा लेखन सफल हो गया।
अध्याय 1: वापसी का मंज़र
_“कुछ मुलाक़ातें सिर्फ़ यादों में होती हैं, लेकिन इस बार... किस्मत ने कुछ और ही लिखा था।”_
पहाड़ों की ठंडी हवा में एक अजीब सी ख़ामोशी थी। होटल "शाम-ए-सुकून" नाम से मशहूर था, लेकिन उस शाम में सुकून कम और साँसें तेज़ थीं। हम पाँच दोस्त—मैं, रिंसी, आरव, दानिश और मेहर—सालों बाद मिले थे। हर कोई अपनी ज़िंदगी में इतना उलझा था कि दोस्ती सिर्फ़ एक पुरानी डायरी का हिस्सा बन गई थी। लेकिन आज, उस डायरी का एक नया पन्ना खुलने वाला था।
लंच के बाद हम होटल के अंदर घूम रहे थे। पुरानी लकड़ी की फ़्लोरिंग, एंटीक पेंटिंग्स और एक अजीब सी ख़ुशबू—जैसे वक़्त यहाँ रुक गया हो। तभी दानिश ने एक दरवाज़ा देखा, होटल के पिछले हिस्से में। दरवाज़ा पुराना था, लकड़ी का, लेकिन उस पर एक नक़्श था—जैसे किसी पुरानी तहज़ीब का राज़ छुपा हो।
दानिश की आँखों में एक चमक थी। "यार, ये दरवाज़ा पहले नहीं देखा था," उसने कहा। हम सब उसके पीछे चल दिए। तभी होटल का मैनेजर—एक बूढ़ा सा आदमी, सफ़ेद बाल और आँखों में डर—तेज़ क़दमों से आया। "रुको! उस दरवाज़े को मत खोलना!" उसने चीख़ कर कहा।
लेकिन दानिश ने उसकी बात अनजाने में उड़ा दी। दरवाज़ा खुला... और हम सब जम गए।
दरवाज़े के उस पार एक और दुनिया थी। हरा-भरा जंगल, एक चमकता हुआ झरना और दूर तक फैली रोशनी। जैसे किसी और ज़माने में क़दम रख दिया हो। मैनेजर का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। उसकी आँखों में डर था, लेकिन हम सब उस नज़ारे में खो गए।
सारे दोस्त एक-एक करके उस दरवाज़े के पार चले गए। मैं अपनी साड़ी का पल्लू ठीक कर रही थी, और दरवाज़ा बंद कर दिया। मुझे कुछ अजीब सा एहसास हो रहा था—जैसे कुछ ग़लत हो गया हो।
थोड़ी देर बाद मैनेजर ने मुझे देखा और चीख़ कर बोला, "तुमने दरवाज़ा बंद कर दिया? अब कोई ज़िंदा नहीं बचेगा!" उसकी बात ने मेरी रूह काँप दी। मैंने तुरंत दरवाज़ा खोला... और सामने थी रिंसी।
लहूलुहान, थकी हुई, आँखों में डर। "मैं पाँच महीने से लड़ रही हूँ," उसने कहा। "वो दुनिया जैसी दिखती है, वैसी नहीं है। हर क़दम पर मौत है। हर मुस्कुराहट के पीछे एक ख़ौफ़ है।"
मैं चौंक गई। "रिंसी, अभी तो सिर्फ़ पाँच मिनट हुए हैं..."
उसने बस एक बात कही:
_"वक़्त इस दरवाज़े के उस पार कुछ और ही चलता है... और हर क़दम एक इम्तिहान है।"_
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अगले अध्याय में जानेंगे:..
*अध्याय 2: दरवाज़े के उस पार* – जहाँ वक़्त रुकता नहीं, और हर मुसाफ़िर अपनी किस्मत से लड़ता है।
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