अर्जुन ने अब तक कई आंतरिक शत्रुओं पर विजय पाई थी – मोह, क्रोध, प्रलोभन, अकेलापन और अहंकार।
गाँववाले उसकी और अधिक इज़्ज़त करने लगे। वह साधना में आगे बढ़ता गया और उसके मन में गहरी शांति का अनुभव होने लगा।
लेकिन साधना का मार्ग सरल नहीं होता। जैसे-जैसे मन शुद्ध होता है, वैसे-वैसे सूक्ष्म परीक्षाएँ सामने आती हैं।
पहली छाया
एक रात अर्जुन जंगल में ध्यान कर रहा था।
शांत वातावरण में केवल झींगुरों की आवाज़ गूँज रही थी।
ध्यान के मध्य अचानक उसके मन में विचार आया –
“क्या यह सब सही है?
क्या मैं सचमुच ब्रह्मचर्य और साधना से मुक्ति पा सकूँगा?
क्या कहीं यह सब केवल कल्पना तो नहीं?
क्या भगवान सचमुच हैं?
अगर नहीं हैं तो मेरी यह तपस्या व्यर्थ जाएगी।”
यह विचार इतना प्रबल था कि उसकी साधना टूट गई।
उसने आँखें खोलीं और बेचैन होकर चारों ओर देखा।
आज पहली बार उसे लगा जैसे धरती उसके नीचे से खिसक रही हो।
गुरुजी से संवाद
अगले दिन अर्जुन गुरुजी के पास गया और बोला –
“गुरुदेव, मेरे मन में संशय पैदा हो गया है।
कभी लगता है भगवान हैं, कभी लगता है शायद नहीं।
कभी सोचता हूँ मेरी साधना सही दिशा में है, कभी डर लगता है कि सब व्यर्थ हो जाएगा।
मैं क्या करूँ?”
गुरुजी ने शांति से उत्तर दिया –
“अर्जुन, साधक के मन में संशय आना स्वाभाविक है।
संशय वह छाया है जो प्रकाश के आने पर पैदा होती है।
अगर प्रकाश न हो, तो छाया भी नहीं होती।
इसका मतलब है कि तू सही दिशा में जा रहा है, तभी संशय उठा है।”
अर्जुन ने पूछा –
“लेकिन गुरुदेव, यह छाया मुझे बहुत डरा देती है।
मैं कैसे जानूँ कि भगवान सचमुच हैं?”
गुरुजी ने गंभीर स्वर में कहा –
“भगवान को किताबों या शब्दों से नहीं जाना जा सकता।
उन्हें केवल अनुभव से जाना जा सकता है।
संशय को मिटाने का उपाय है – अनुभव और निरंतरता।
जितना तू साधना करेगा, उतना तेरे भीतर उत्तर अपने-आप प्रकट होगा।”
परीक्षा का दौर
गुरुजी की बातें सुनकर अर्जुन ने साधना जारी रखी।
लेकिन संशय बार-बार उसके मन को घेर लेता।
कभी वह सोचता –
“अगर ब्रह्मचर्य का पालन इतना कठिन है, तो क्या मैं कभी पूर्ण हो पाऊँगा?”
कभी लगता –
“शायद साधारण जीवन जीना ही सही था। बाकी सब लोग तो खुश हैं। मैं क्यों इतना संघर्ष कर रहा हूँ?”
धीरे-धीरे उसके मन में यह द्वंद्व बढ़ता गया।
कभी उत्साह से भरा होता, कभी गहरी निराशा में डूब जाता।
कभी उसे लगता कि वह सही मार्ग पर है, तो कभी लगता कि वह अंधेरे में भटक रहा है।
संशय का चरम
एक दिन गाँव में महामारी फैल गई।
कई लोग बीमार पड़ गए।
गाँववाले अर्जुन के पास आए और बोले –
“तू इतना साधक है, तेरे पास शक्ति है, तू हमारी मदद कर।
अगर तेरी साधना सच है, तो तू हमें बचा सकता है।”
अर्जुन असमंजस में पड़ गया।
“क्या सचमुच मेरी साधना से कुछ होगा?
अगर नहीं हुआ, तो लोग मुझ पर हँसेंगे।
शायद मेरी सारी तपस्या झूठ है।”
उसने पहली बार खुद को कमजोर और असहाय महसूस किया।
संशय ने उसके आत्मविश्वास को हिला दिया।
गुरु का प्रकाश
अर्जुन ने गुरुजी को अपनी पीड़ा सुनाई।
गुरुजी ने गहरी दृष्टि से उसे देखा और कहा –
“अर्जुन, याद रख – साधक का काम चमत्कार करना नहीं, बल्कि सेवा और विश्वास बनाए रखना है।
तू अगर संशय में रहेगा, तो तेरा मन बँध जाएगा।
लेकिन अगर तू सेवा करेगा, तो संशय अपने आप मिट जाएगा।
संशय हमेशा निष्क्रिय मन को सताता है।
कर्मशील और सेवा में लगे मन को संशय छू भी नहीं सकता।”
अर्जुन के हृदय में यह वचन तीर की तरह उतरे।
संशय से मुक्ति
अर्जुन ने गाँववालों की मदद करना शुरू किया।
बीमारों को पानी पिलाना, औषधि पहुँचाना, बच्चों की देखभाल करना – वह दिन-रात सेवा में लग गया।
धीरे-धीरे उसने महसूस किया कि जब वह सेवा करता है, तो उसके मन में कोई संशय नहीं रहता।
उसका हृदय हल्का और शांत हो जाता।
एक रात थका हुआ वह मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा था।
उसके भीतर से आवाज़ आई –
“देख अर्जुन, भगवान किसी मूर्ति में बंद नहीं हैं।
भगवान तेरे उस प्रेम में हैं जो तू सेवा में बहाता है।
जहाँ निस्वार्थ भाव है, वहीं परमात्मा है।
इसलिए तेरी साधना व्यर्थ नहीं जा रही। हर कदम तुझे प्रकाश की ओर ले जा रहा है।”
उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
संशय की छाया टूट चुकी थी।
अब उसके भीतर केवल विश्वास और समर्पण शेष रह गया।
अर्जुन का आत्मबोध
अगले दिन उसने अपनी डायरी में लिखा –
“संशय मन का सबसे गहरा अंधेरा है।
लेकिन जब हम सेवा और अनुभव के मार्ग पर चलते हैं, तो यह अंधेरा स्वयं मिट जाता है।
आज मुझे अनुभव हुआ कि भगवान कहीं बाहर नहीं, हमारे भीतर और हमारे कर्मों में ही हैं।
अब मेरा संशय टूट चुका है। अब मैं निश्चय और विश्वास के साथ साधना करूँगा।”
इस तरह अर्जुन ने अपनी नौवीं कठिनाई – संशय की छाया – भी पार कर ली।
उसका मन अब और अधिक दृढ़, स्थिर और विश्वासपूर्ण हो चुका था।