अर्जुन अब तक सात कठिन परीक्षाएँ पार कर चुका था। मोह, अकेलापन, क्रोध और प्रलोभन—सब पर उसने विजय पाई थी।
गाँव के लोग अब उसे सम्मान की दृष्टि से देखने लगे।
जहाँ पहले उसका मज़ाक उड़ाया जाता था, अब वहीं लोग कहते –
“अर्जुन सचमुच साधक है। उसकी बातें सुनकर मन शांत हो जाता है।”
“अगर यह इसी तरह बढ़ता रहा, तो बड़ा संत बनेगा।”
गाँव के बच्चे उसके पास बैठते और कहानियाँ सुनते। बुजुर्ग उससे आशीर्वाद माँगते।
धीरे-धीरे अर्जुन को भी यह लगने लगा कि वह कुछ अलग है।
एक दिन गाँव में एक बड़ा उत्सव हुआ। अर्जुन को मंच पर बुलाया गया और सबके सामने सम्मानित किया गया।
सेठ, जिसने पहले उसे धन और वैभव का लोभ दिया था, वह भी आकर बोला –
“अर्जुन, तू हम सबसे महान है। हम तुझे प्रणाम करते हैं।”
भीड़ तालियाँ बजा रही थी।
अर्जुन के हृदय में गर्व की लहर दौड़ गई।
वह सोचने लगा –
“सचमुच, मैं साधारण इंसान नहीं हूँ। मैं सबसे अलग हूँ। लोग मुझे सम्मान देते हैं, मेरी बातें सुनते हैं। शायद मैं महान बनने के लिए ही जन्मा हूँ।”
यही वह क्षण था जब अहंकार का बीज उसके भीतर अंकुरित हो गया।
कुछ दिनों तक सब ठीक रहा।
लेकिन फिर उसने महसूस किया कि जब कोई उसकी बात नहीं मानता, तो उसे खीज होने लगी।
जब कोई उसकी प्रशंसा नहीं करता, तो उसे दुख होता।
कभी-कभी वह मन ही मन सोचता –
“लोगों को मेरा आभार मानना चाहिए। आखिर मैंने ही तो साधना कर यह स्थान पाया है।”
यह अहंकार धीरे-धीरे उसकी शांति को खा रहा था।
एक दिन उसने देखा कि गाँव के कुछ लड़के उसकी बातें ध्यान से नहीं सुन रहे थे।
वह गुस्से में बोला –
“तुम लोग ध्यान क्यों नहीं देते? तुम्हें समझ नहीं आता कि मैं तुम्हारे भले के लिए बोल रहा हूँ? मेरी साधना व्यर्थ जाएगी अगर तुमने कुछ सीखा ही नहीं।”
लड़के चुपचाप वहाँ से चले गए।
अर्जुन के भीतर बेचैनी बढ़ गई।
अगले दिन वह गुरुजी के पास गया और बोला –
“गुरुदेव, मुझे लगता है मैं अब महान बन गया हूँ। लोग मेरी इज़्ज़त करते हैं, मुझे सम्मान देते हैं। लेकिन फिर भी कभी-कभी मैं बेचैन हो जाता हूँ। क्यों?”
गुरुजी ने गंभीर होकर कहा –
“अर्जुन, यह बेचैनी तेरे भीतर के अहंकार से आ रही है। अहंकार साधना की सबसे सूक्ष्म परीक्षा है। मोह, क्रोध, प्रलोभन सब स्पष्ट होते हैं, लेकिन अहंकार बहुत छुपा हुआ होता है। यह तुझे यह एहसास दिलाता है कि ‘मैं श्रेष्ठ हूँ’। और जहाँ ‘मैं’ आ जाता है, वहाँ साधना टूट जाती है।”
अर्जुन चौंक गया।
“गुरुदेव, लेकिन मैं तो सच्चाई का मार्ग चुन रहा हूँ। इसमें अहंकार कहाँ से आ गया?”
गुरुजी ने मुस्कुराकर कहा –
“बेटा, यही तो सबसे बड़ा भ्रम है। जब इंसान सोचने लगे कि वह पवित्र है, श्रेष्ठ है, तो अहंकार जन्म लेता है। याद रख, साधक कभी यह नहीं कहता कि ‘मैं महान हूँ’। वह हमेशा कहता है – ‘मैं तो साधारण हूँ, महान तो केवल परमात्मा है।’”
अर्जुन के दिल को चोट लगी।
उसे लगा जैसे किसी ने उसके गर्व का दर्पण तोड़ दिया हो।
उस रात वह देर तक नदी किनारे बैठा रहा।
पानी में अपना चेहरा देखकर वह सोचने लगा –
“क्या सचमुच मेरे भीतर अहंकार आ गया है? क्या मैं दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगा हूँ? अगर यह सच है, तो मेरी सारी साधना व्यर्थ है।”
उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
उसने मन ही मन कहा –
“हे प्रभु, मुझे मेरे अहंकार से मुक्त कीजिए। मैं महान नहीं, मैं तो एक तिनका हूँ। अगर कुछ भी अच्छा है, तो वह आपकी कृपा से है।”
अगले दिन अर्जुन ने अपना व्यवहार बदलना शुरू किया।
अब वह गाँववालों से कहता –
“जो भी ज्ञान है, वह मेरा नहीं, गुरुजी का है। अगर मुझसे तुम्हें कुछ शांति मिलती है, तो उसका श्रेय गुरु और भगवान को है।”
धीरे-धीरे उसके भीतर का गर्व टूटने लगा।
वह समझ गया कि साधना में अहंकार सबसे खतरनाक है, क्योंकि यह शांति का भेष धरकर आत्मा को बाँध लेता है।
कुछ दिनों बाद गाँव में एक अजनबी साधु आया।
उसने अर्जुन को प्रश्न पूछे और उसकी परीक्षा ली।
अर्जुन ने विनम्रता से उत्तर दिया और अंत में कहा –
“महाराज, मैं तो अभी सीखने वाला हूँ। सच्चा ज्ञान तो केवल आप जैसे महापुरुषों के पास है।”
साधु मुस्कुराया और बोला –
“बेटा, तूने सही मार्ग पकड़ लिया है। जब तक तू खुद को साधारण मानेगा, तब तक तेरा ज्ञान बढ़ेगा। अहंकार का दर्पण जब टूटता है, तभी आत्मा का असली प्रकाश दिखता है।”
उस रात अर्जुन ने अपनी डायरी में लिखा –
“आज मैंने जाना कि सबसे बड़ा शत्रु अहंकार है। यह चुपचाप आत्मा को बाँध लेता है। मैंने समझा कि मैं कुछ नहीं, सब कुछ वही है – परमात्मा। अगर मैं विनम्र रहूँगा, तो ही साधना आगे बढ़ेगी।”
इस तरह अर्जुन ने अपनी आठवीं कठिनाई – अहंकार का दर्पण – भी पार कर ली।
अब उसकी आत्मा और अधिक निर्मल और विनम्र हो चुकी थी।